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कर्मग्रभ्थ भाग चार
રાય
भाव जीवत्व आदिरूप भीर क्षायिक-भाव केवलज्ञान आदिरूप है । पञ्च- संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ उपशममेदिवाले मतुहोता है। इस कारण वह एक ही प्रकारका है: उपशमश्रेणिवाले मनुष्योंमें शायिक-भाव सम्ययरूप
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रूप, क्षायोपशमिक-भाव भावेन्द्रिय शादिरूप, पारिणामिक-भाव जीवत्व आदिरूप और मौदयिक भाव लेश्या आविरूप है।
इस प्रकार जो हह सांनिपातिक-भाव संभववाले हैं. इनके ऊपर हिके अनुसार साम-मेसे सब मिलाकर पन्द्रह भेद होते हैं ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ कर्मके और धर्मास्तिकाय आदि अजीवद्रव्यों भाष । मोहेब समो मीसो, वडवाइस अट्ठकंमसु च सेसा । धम्माइ पारिणामिय, मावे संधा उदाए षि ॥ ६६ ॥ मोह एवं शमो मिति यष्टकर्मसु च शेषाः 1
धर्मादि पारिणामिकमा स्कन्धा उदयेऽपि ॥ ६९ ॥
अर्थ - श्रीपशमिक-भाव मोहनीय कर्म के ही होता है। मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव चार घातिकमौके ही होता है। शेष तीन (ज्ञायिक, पारिणामिक और भौदयिक) भाव भाड़ों कर्मके होते हैं।
धर्मास्तिकाय आदि अजीवद्रव्यके पारिणामिक-भाव है किन्तु पुत्रल-स्कन्धके श्रदयिक और पारिणामिक, ये दो भाव हैं ॥ ६६ ॥ भावार्थ -- कर्मके सम्बन्धमें औपशमिकं आदि भाषका मतलब
१ – कर्मके भात्र, पचसंग्रह-द्वा० रेकी २५वी गाथामैवति है। २ - ० पशमिक शब्द के दो अर्थ है:
(?) कर्मको उपशम आदि अवस्थायें ही औपशमिक आदि भाव है। यह अर्थ कर्मके. भोला पड़ता है।
(२) कर्मका उपशम आदि अवस्थाओंसे होनेवाले पर्याय औपशमिक आदि भाव जोके भावों लागू पड़ता है, जो ६४ और ६६वी गाथामे बतलाये है
है।
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