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कर्मग्रन्थ भाग चार
कहा के प्रदेश ३ अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, ४) एक पदीय के प्रदेश (५) रिथिति--अन्ध-जनक अध्यवसाय स्थान. (६) अनुमान विशेष, (७) योग के निर्विभाग अंश (८) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, इन दी काल के समय, (e) प्रत्येक शरीर और (१० निगोवशरीर ||१२|| उक्त वस संख्याएं मिलाकर फिर उसका लोन बार वर्ग करना । वर्ग करने से अन्य परीतानन्त होता है । जघन्य परीसानन्त का अभ्यास करने से जधन्य युक्तानश्त होता है। यह अभय जीवों का परिमाण है ।।३।।
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(काणिक जीव
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उसका अर्थात् जघन्य युस्कानन्त का वर्गे करने से जघन्य अनन्तानगल होता है । जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्ग करना लेकिन इतने से ही वह उत्कष्ट अनश्तामन्त नहीं बनता। इसलिये तीन बार वर्ग करके उसमें नीचे लिखी छह अनन्त संख्याएँ मिलामा ॥४ (1) सिद्ध (४) तीनों काल के समय ( ५ संपूर्ण पुदगल - परमाणु और ( ३ ) समय आकाश के प्रवेश, इन छह की अनन्त संख्याओं को मिलाकर फिर से तीन बार षगं करना और उसमें केवल कके पर्यायों की सख्या' को मिलान | शास्त्र में अनन्तानन्त का व्यवहार किया जाता है, सो मध्यम अनन्तानन्त का जधन्य पर उत्कष्ट का नहीं । इस सूक्ष्मार्थ विचार नामक प्रकरण को श्री देवेन्द्र भूरि ने लिखा है ॥६५॥८६॥
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भावार्थ- गा० ७१ से ७६ तक में संख्या का वर्णन किया है, सो संज्ञातिक मत के अनुसार अब कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार वर्णन किया जाता है । संख्या के इक्कीस मेवों में से पहले सात भेवो के स्वरूप के विषय में सैद्धान्तिक और फार्मग्रन्थिक आचार्यो का कोई मतभेव नहीं है: अठ आदि सब मेवों के स्वरूप के विषय में मतभेद है ।
१- मुलके 'अलोक' पदसे लोक अलोक दोनो प्रकार का आवश विवक्षित है ।
२ - ज्ञेयपर्याय अनन्त होने से ज्ञानपर्याय भी अनन्त है ।