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कर्मग्रन्थ भाग पार
२२३ संख्यायें उसमें मिलाना । (१) लोकाकाश के प्रदेश, (२) धर्मास्तिसागरोपम के बीच में असख्यात समयों का असर है। इसलिये अघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक एक प्रकार की होने पर भी उसमें मध्यम स्थितियाँ मिलाने से ज्ञानावरणीय की स्थिति के असंख्यात भेद होते हैं । अन्य कर्मों की स्थिति के विषय में भी इसी सरह समझ लेना चाहिये । हर एक स्थिति के अन्ध में कारणभूत अध्यवसायों की संख्या असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर कहीं हुई हैं । __"पइटिइसंखलोगसमा ।" —ा. ५५,देवेन्द्रसूरि-कृत पञ्चम कर्मग्रन्थ । इस जगह सब स्थिति-बन्धनो कारणभूत अध्यवसायों कीसंख्या विवक्षित है।
अनुभाग अर्थात् रसका कारण काषायिक परिणाम है। कापायिक परिणाम अर्थात् अध्यवसायके तीव, तीव्रतर, तीअसम, मन्द, मन्दतर मन्दतम आदि रूप से असंख्यात भेद हैं । एक-एक भाषापिक परिणाम से एक-एक अनुभाग-स्थान का बन्ध होता है क्योंकि एक काषायिक परिणाम से गृहीत कर्म परमाणओं के रस-म्पर्थकों को ही शास्त्र में अनुभाग बन्ध. कहा है। देखिये कम्मपयटी की ३१ वी गाथा श्रीयशोविजयजी-कृत टीका। इमलिये काषायिक परिणाम-जन्य अनुभाग स्थान भी काायिक परिणाम के तुल्य अर्थात् असंख्यात ही है। प्रसंगतः यह बात जाननी चाहिये कि प्रत्येक स्थिति-बन्ध में असंख्षात अनुभाग-स्थान होते है। क्योंकि जितने अध्यवसाय उतने ही अनुभागस्थान होते हैं और प्रत्येक स्थिति-बन्ध में कारणभूत अध्यवसाय असंख्यात लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण हैं।
योग के निविभाग अंश असंख्यात है। जिम अंश का विभाग केवलज्ञान से भी न किया जा सके.उसको निविभाग अंश कहते हैं 1 इस जगह निगोद से संशी पर्यन्त सब जीवों के मोग,सम्बन्धी निमिाग अंशोंकीसंस्माइष्ट है।
जिस शरीर का स्वामी एक ही जीव हो, वह 'प्रत्येक शरीर' है। प्रत्येक शरीर असंख्यात है। क्योंकि पृथ्वी कायिक से लेकर उसकायिक पर्यंन्त सब प्रकार के प्रत्येक जीव मिलाने से असंख्यात ही है।
जिस एक शरीर के धारण करने वाले अनन्त जीव हों बहा 'निगोद शरीर' । ऐसे निगोदशरीर असंख्यात ही है