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कर्मग्रन्थ भाग चार
असंख्यात और अनन्त का स्वरूप । [ बो गाथाओं से । ]
वयं तु परिता-संखं लहू अस्स रासि अभासे । जुसासंखिज्जं लघु, आवलियासमयपरिमाणं ॥७८॥ रूपयुतं तु परीक्षासंख्यं लध्वस्य राशेरभ्यासे । युक्तासंख्येयं लघु, आवलिकासमयपरिमाणम् ॥७॥ अर्थ - उत्कृष्ट रूप स अवश्य परीता संख्यात होता है। जधम्म परीता संख्यान का अभ्यास करने से जघन्य युक्तासंख्यात होता है । जघन्य युक्तासंध्यास ही एक आवलिका के समयों का परिणाम है ||७||
मावार्थ - उत्कृष्ट संख्यात में एक संख्या मिलाने से जघन्य परीक्षासंख्यात होता है । अर्थात् एक-एक सर्वप डाले हुए द्वीपसमुद्रों की और चार पदों सर्वपों की मिली हुई संपूर्ण संख्या ही परीत्तासंख्यात है ।
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जघन्य परीक्षा संख्या का अभ्यास करने पर जो संख्या
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१- दिगम्बर शास्त्रों में भी 'रूप' शब्द एक संख्या के अर्थ में प्रयुक्त है । जैसे:-- जीवाण्ड की १०७ तथा ११०वीं गाया आदि तथा प्रवचनसार-शयाधिकार की ७४वीं गाया की टीका
२ -- जिस संख्या का अभ्यास करना हो, उसके अङ्ग को उतनी दफा लिखकर परस्पर गुणना अर्थात् प्रथम अङ्ग को दूसरे के साथ गुणना और जो गुणन - फल आवे, उसको तीसरे अङ्ग के साथ गुणना, इसके गुणन - फल को अगले अझ के साथ इस प्रकार पूर्व - पूर्व गुणनफल को अगले अगले अङ्ग के साथ गुणना, अन्त में जो गुणनफल प्राप्त हो, वहीं विवक्षित संख्या का अभ्यास है । उदाहरणार्थ- ५ का अभ्यास ११२५ है । इसकी विधि इस प्रकार है: --५ को पांच दफा लिखना:-- ५ ५ ५, ५, ५ । पहले भू को दूसरे ५ के साथ गुणने से २५ हुए, २५ को तीसरे ५ के साथ गुणने से १२५, १२५ को चौथे ५ के साथ गुणने से ६२५, ६२५ को पाँचवें ५ के साथ गुणने से ३१२५ हुए। - अनुयोगद्वार - टीका, पृ० ३१६ ।