Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
कर्मग्रन्थ भाग चार
१७
प्रकारका
और धर्म के
में संदेह-शोल बने रहना 'सांशयिकमिध्यात्व" है । (५) विचार व विशेष ज्ञान का अभाव अर्थात् मोह को प्रगाढतम अवस्था 'अगाभोग मिध्यात्व" है । हम पाँच में से अभिग्रहिक और अनामिहिक, ये दो मिथ्यात्व गुरु हैं और शेष तीन लघुः क्योंकि ये दोनों विपर्यास रूप न होने से तीव्र केल्लाके कारण है और शेष तीन विपर्यास रूप होने तीव्र केल्दाके कारण नहीं हैं।
मन को अपने विषय में स्वष्टस्यतापूर्वक प्रवृत्ति करने देना मनअविरति है। इसी प्रकार त्वचा, जिल्हा आदि पाँच इन्द्रियों की अविरति को भी समझ लेना चाहिये । पृथ्वी कायिक जीवों की हिसा करना पृथ्वीका अविरति है। शेष पाँच कार्यों की अविरति को इसी प्रकार समझ लेना चाहिये। ये बारह अविरतियाँ मुख्य है । सृषरवाद- अविरति अदत्त दान- अविरति आदि सब अविरतियों का समा वेश इम बारह में ही हो जाता है ।
"
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का औधिक परिणाम ही मुख्यतया मिथ्यात्व कहलाता है । परन्तु इस जगह उससे होते बोली अभिग्रहिक आदि बाह्य प्रवृत्तिओं को मिध्यात्व कहा है सो कार्य-कारण के भेद की विवक्षा न करके इसी तरह अविरति एक प्रकार का काथा
१- - सूक्ष्म विषयों का संशय उच्च कोटि के साधुओं में भी पाया जाता है, पर वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, वोंकि अन्ततः -
"समेव सञ्चं णीसंकं जं जिर्णोहि पवेष्टयं ।”
इत्यादि भावना से आगम को प्रमाण मानकर ऐसे संशयों का निवर्तन किया जाता है। इसलिये जो संशय, आगम- प्रामाण्य के द्वारा भी निवृत्त नहीं होता, वह अन्ततः अनाचार का उत्पादक होने के कारण मिथ्यात्व रूप हैं | - धर्म संग्रह पृ
२- यह एकेन्द्रिय आदि क्षुद्रतम जन्तुओं में और मूह प्राणियों में -- श्रसंप्रह, पृ०
होता है।