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कर्म ग्रन्थ माग चार भावार्थ ---- १) सत्वको परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धान्त का पक्षपात करके अन्य पक्ष का लम्बन करना 'अभिवाहिकमिग्याए" है। (२१ गण-दोष को परीक्षा बिना किये हो सब पक्षों को मराबर समझना 'अनामिहिकामयात्व है ।१३अपये पन हो मसत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिये दुरभिनिवेष (दुराग्रह) करना आभिनिवेक्षिकमिथ्यात्व' है। (४। ऐसा व होगा या अन्य
१-.सम्यवस्वी कदागि अपरीक्षित सिद्धान्त का पक्षपात नहीं करता अत एव जो व्यक्ति तत्त्व-परीक्षापूर्वक किसी-एक पक्ष को मानकर अन्य पक्ष का खण्डन करता है। बह अभिग्रहिक' नहीं है । जो फूलाचार मान से अपने को जैन (सम्यक्त्वी) मानकर तत्त्व की परीक्षा नहीं करता, वह नाम से "जैन' परन्तु बस्ततः 'अभिरा हिका मिथ्यात्वी है। भाषनुष मुनि आदि की साह तत्त्व-परीक्षा करने में स्वयं असमर्थ लोग यदि गीताथं (यथार्थ-परीक्षक) के अाधित हों तो उन्हें 'अभिमहिकमिथ्यात्वी' नहीं समझना क्योंकि गीतार्थ यथार्थ-परीक्षक) के आश्रित रहने से मिथ्या पक्षपाल का संभव नहीं रहता। धर्म संग्रह पृ० १०
२-यह. मन्द बुमि वाले व परीक्षा करने में असमर्थ साधारण लोगों में पाया जाता है ऐसे लोग अकसर कहा करते हैं कि सब धर्म बराबर है
३-सिर्फ उपयोग न रहने के कारण या मार्ग-दर्शक की गलती के कारण, जिसकी श्रद्धा विपरीत हो जाती है, यह 'अभिनिवेशिका मिथ्याची' नहीं है। क्योंकि यथार्थ-वक्ता मिलने पर उमका श्रद्धा सास्विस . बन जाती है, अर्थात् यथार्थ-वक्ता मिलने पर भी श्रद्धा का विपरीत मना रहतां दुरभिनिवेश है । यद्यपि श्रीसिद्धसेन दिवाकर, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचायों ने अपने-अपने पक्ष का समर्थन करके बहतकुछ कहा है तथापि उन्हें 'आभिनिवेशिकमिश्यात्वी' नहीं कह सते; क्योंकि उन्होंने अविच्छिन्न प्रावनिक परंपरा के आधार पर शास्त्रतात्पर्य को अपने-अपने पक्ष के अनुकूल समझकर अपने-अपने पक्ष का समर्थन किया है, पक्षपात से नहीं । इसके विपरीत जमालि गोष्टामाहिल आदि ने शास्त्र-तात्पर्य को स्व-पक्ष के प्रतिकूल जानते हुए भी निजपक्ष का समर्थन किया; इसलिये वे 'आभिनिवेशिक' कहे जाते हैं।
--धर्म०, पृ. ४० ।