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कर्मग्रन्थ भाग चार
१८१ इस जगह तीर्थरनामकर्म के बन्ध का कारण सिर्फ सम्यक्तन और माहारक-द्विक के बन्ध का कारण सिर्फ संयम विवक्षित है। इसलिये इन तीन प्रकृतियों की गणना कषाय-हेसुक प्रकृतियों से नहीं की है ॥५३॥ गुणस्थानों में उत्तर बन्ध-हेतुओं का सामान्य तथा
विशेष वर्णन' ।
[ पाँच गाथाओं से ] पणपन्न पन तियछहि-अचत्त गणचत्त छचउद्गवीसा । सोलस बस नव नव स,-त्त हेउणो न उ अजोगिमि ॥५४॥ १-पञ्चसंग्रह-द्वार ४ की १६वीं गाथा में
सेसा उ फसाएटिं।" इस पद से तीर्थङ्करनामकर्म और आहारक-दिक, इन तीन प्रकृतियों को कषाय-हेतुक माना है तथा अगाजी की २०वी माया में सम्याव को तीर्थ टारनामकर्म का और संयम का आहारक-द्विक का विशेष हेतु कहा है। तत्वार्थ-अ० हवें के १ ले सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में भी ईन तीन प्रकृतियों को कराय-हेत्तक माना है। परन्तु श्रीदेवेन्द्रसूरि ने इन तीन प्रकृतियों के बन्ध' को कषाय-हतक नहीं कहा । उसका तात्पर्य सिर्फ विशेष हेतु दिखाने का जान पड़ता है, कषाय के निषेध का नहीं क्योंकि सब कर्म के प्रकृति और प्रदेश-बन्ध में योग की तथा स्थिति और अनुभाग-बन्ध में कषाय की कारणता निविबाद सिद्ध है। इसका विशेष विचार, पञ्चसंग्रह-द्वार की २.वी गाथा की थीमलयगिरि-टीका में देखने योग्य है।
२-यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वार ४ की ५वीं गाथा में तथा गोम्मटमार कर्मकाण्ड की ७८६ ओर ७६०वी गाथा में हैं।
उत्तर बन्ध हेतु. के सामान्य और विशेष, ये दो भेद हैं । किसी एक गुणस्थान में वर्तमान संपूर्ण जीवों में युगपत् पाये जाने वाले बन्न-हेत. 'सामान्य' और एक जीव में युगपत पाये जाने वाले बन्ध-हेत 'विशेष' कहलाते है । प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ७७वी गाथा में और इस जगह सामान्य-उत्तर बन्ध-हेत का वर्णन है। परन्तु पन्धसंग्रह और गोम्मटसार में सामान्य और विशेष, दोनों प्रकार के बन्ध-हेतुओं का । पञ्चसंग्रह की टीका में यह विषम बहुत स्पष्टता से रामझाया है । विशेष उत्तर बन्ध-हेत का वर्णन अति विस्तृत और गम्भीर है ।