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कर्मग्रन्थ भाग चार - पञ्चपञ्चाशत् पञ्चाशत् त्रिवाधिक चत्वारिमादेकोन चत्वारिंशत् षट्चतु
विविंशतिः। षोडश दश नव नव सप्त हेतवो नत्वयोगिनि ।। ५४ ॥
अर्थ-पहले गुणस्थान में पचपन मन्त्र-हेतु हैं, दूसरे में पचास, तीसरे में तेतालीस, चौथे में छयालीस, पांचवे में उन्तालीस, छठे में सम्बोस, सातवे में चौमास, भय में बाईश में में सोलह, बसन में वस, ग्यारहवें और बारहवें में नौ तथा सेरहवें में सात बन्ध-हेतु हैं, चौवह म गस्थान में बन्ध हेतु नहीं हैं ।।५४।।
पणपन्न मिच्छि हारग,-दुगूण सासाणि पनमिच्छ विणा । मिस्सदुगकमअणविणु, तिचत मोसे अह छमत्ता ।।५५॥ सवृमिस्सकम अजए, अविरइकम्मुरलमीसविकसाये । भुत्तुगुणचत बेसे, छपीस साहर पमत्त ॥५६॥ अविरइइगारतिकसा,-यवज्ज अपमति मीसदुगरहिया ।
चउवीस अपुटवे पुण, दुवीस अविउवियाहारा ॥५७।। पञ्चपञ्चाशन्मिथ्यात्व आहारकद्धि कोनाः सासादने पदमिथ्यात्वानि विना । मिद्विककामगाऽनाविना, त्रिचत्यारिमान्मिश्रेज्य षट्चत्वारिंशत् ॥५५॥ सद्विमित्रकर्मा अयतेऽविरतिकमौदारि कमियीद्वतीय कपायान् । मुक्त्व कोनचत्वारिणद्देशे, पदिशतिः साहारदिका: प्रमसे ॥५६॥ अविरत्येकादशकतृतीय कषायवर्जा अप्रमते मिश्रद्विकरहिता । चतुर्विशतिर पूर्व पुनःकिंशतिरक्रियाहाराः ॥५७.
अर्य-मिष्याष्टिगणस्थान में आहारक-हक को छोड़कर पचपन बन्ध-हेतु हैं । साक्षावनगणस्थान में पांच मिग्यात्व के सिवाय पचास सम्ध-हेतु हैं । मिष्टिग णस्थान में औवारिकमिय, अनियमिश्र,