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कर्मग्रन्थ भाग यार
( ९ ) - गुणस्थानों में उदीरणा । [ दो गायासे ॥]
उरंति पमसंता, सगट्ठ भीसह वेयचाउ षिणा । बग अपमसाइ तो, छ पंच सुमो पणुबसंतो ॥ ६१ ॥
उदीरयन्ति प्रमान्ताः सप्ताष्टानि मिश्रोऽष्ट वेदायुषी बिना शान्तः ॥३९॥
मप्रमादयस्ततः, षट् पञ्च सूक्ष्मः
अर्थ--प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त सात या आठ कर्मकी उदारणा होती है। मिश्रगुणस्थानमें आठ कर्मकी, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिवादर इन तीन गुणस्थानों में वेदनीय तथा आयुके सिवाय छह कर्म की सूक्ष्म पराय गुणस्थान में छह या पाँच कर्म की और उपशान्तमोगुणस्थानमें पाँच कर्मकी उदीरणा होती है ॥६२॥
भाषार्थ - उदीरणाका विचार समझने के लिये यह नियम ध्यानमें रखना चाहिये कि जो कर्म उदयमान हो उसीको उदीरणा होती हैं, अनुदयमानकी नहीं। उदयमान कर्म प्रालिका प्रमाण शेष रहता है, उस समय उसकी उदीरणा रुक जाती है।
तीसरेको छोड़ प्रथमसे छठे तक के पहले पाँच गुणस्थानों में लात या आठ फर्मको उदीरणा होती है। आयुकी उदीरणा न होने के समय सात कर्म की और होनेके समय आठ कर्मको समझनी चाहिये । उक नियमके अनुसार भायुकी उदीरणा उस समय रुक जाती है, जिस समय वर्तमान भयकी प्रायु भाषतिका प्रमास शेष रहती है। यद्यपि वर्तमान-भवीय आयुके प्राथलिकामात्र बाकी रहनेके समय परभीय मायुकी स्थिति आवलिकाले अधिक होती है तथापि अनु
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