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फर्मग्रन्थ भाग चार
छह भाव और उनके भेदं ।
पाँच गाथाओंसे ! उपसमलपमीसोदय, परिणामा दुनवट्ठारगवीसा । तिय भय संनिवाइय, संमं चरण पढममावे॥ ४ ॥
उपशमक्षयमिभोदयपरिणाम निघाष्टादशेकविंशत्यः। भयो मेदास्तानिपातिकः, सम्यक्ष चरणं प्रथममाये ॥१॥ प्रथं-औपशमिक, शायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक), औषयिक और पारिवामिक, ये पाँच मूल भाव हैं। इनके क्रमशः दो, मौ, अठारह, रकीस और तीन मेड हैं। छठा भाव सांनिपातिक है। पहले (ौपशामिक) भाषके सम्यक्स्प और चारित्र,ये दो भेद हैं ॥६३०
भावार्थ-भाष, पर्यायको कहते हैं। अजीयका पर्याय अजीवका भाष और जीवका पर्याय जीवका भाव है। इस गाया जीवके माष दिखाये हैं। ये मूल भाव पाँच हैं।
१-प्रौपशर्मिक-भान यह है, जो उपशमसे होता है। प्रदेश और विपाक, दोनों प्रकार के कर्मोदयका रुक जाना उपशम है।
-ज्ञायिक-भाव वह है, ओ कर्मका सर्वथा क्षय हो जाने पर प्रगट होता है।
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१-- HTHEt, अनुयोगदाफे ११३ से १२७ सबके परमे; तस्वार्थ-अ.के रसे उतक्के सत्रमें तया सत्रान-निकी १०वी गापा नशा उसको सका है। वसंघर-
ताको मोगाषामे मा २को ३गे गाथाकी टीका तथा समार्थ विचार-सारोबारको ५२से ५७ बाकी गाथाभौम नामका विग्तारपूर्वक वर्णन है।
गोम्मटमार कर्मकाण्ड में हम विषयका 'भावधूलिका नानक क सास प्रकरण है। भावों भेद-उमेद साध उसको १५ से १९ समको माया परे। भागे उसमें को सराय भामाशा रिसाये।
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