Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मनाय भाग चार
योग्यप्रमखतर!:, संख्यगुणा देशमासादमिश्राः । मषिरता अयोगिर्मिग्यास्वनि मसंख्यारमत्वारों द्वापनन्ती ।।१॥ अर्थ-सयोगिफेवलो, अपमस और ममसगुणस्थानकाले जीष पूर्व-पूर्व से संन्यातगुण हैं। पेशविरति, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्रधि-गुणस्थानषाले जीव पूर्ष-पूर्वसे प्रसंगातगुण हैं। अयोपिकवली और मिथ्याधि-गुणसानघाले जीव पूर्व-पूर्वसे अनन्तगुण हैं ॥६॥
भावार्थ-तेरह गुणसानवालेभाठ गुणवामवालोले संक्यातगुण इसलिये कहे गये हैं कि ये जवन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ होते हैं । सात गुणसानघाले दो हजार करोड़ पाये जाते हैं। इसलिये ये सयोगिकेलियोसे संख्यातगुण हैं। छठे गुणस्थानवाले नौ हजार करोड़ शक हो जाते हैं। इसी कारण उन्हें सात गुणसारपालोंसे संख्यातगुण माना है। असंशयाव गर्भज-तिर्यश्चमी देशविरति पा लेते हैं, इसलिये गाँच गुणस्थानवाले छठे गुणस्थामवालों से असंख्यातगुण हो जाते हैं। दूसरे गुणवानवाले देशविरतिक्षालोंसे प्रसंक्यातगुण कहे गये हैं। इसका कारण यह है कि देशविराति, तिर्य-मनुष्य दो गतिमें की होती है, पर सासादनसम्यक्त्व चारों गतिमें । सासादनसम्यक्त्व और मिथरष्टि. ये दोनों पद्यपि चारों गतिमें होते हैं परन्तु सालानसम्यक्त्वको अपेक्षा मिश्राधिका काल-मान प्रसंस्थासगुण अधिक है। इस कारण मिश्ररष्टियाले सासा. दनसम्यक्त्वियोकी अपेक्षा असंख्यातगुण होते हैं। खौथा गुणसान पारों गतिमें सदा ही पाया जाता है और उसका काल-मान भी पास अधिक है, अत एय बोये गुणस्थानयासे तीसरे गुणस्थानवालोंसे मसंख्यातगुण होते हैं। यपपि भवस्थ भयोगी, अपकशिवालोके परावर अर्थात् शत-पृथक्त्या प्रमाणही है तथापि प्रभवस्थ प्रयोगी