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कर्मग्रन्थ माग चार
(६)-गुणस्थानोंमें बन्छ । अपमसंता सत्त-हमीसअपुष्वधायरा सत्त । पंधइ पस्सुहुमो ए,-मुथरिमा पंधगाजोगी ॥६॥
मप्रमचाम्सारसप्ताष्टान् मिभापूर्वबादरासप्त । बभाति षट् च सूक्ष्म एकमुपरिवना अबन्धकोऽयोगी ॥५॥ अर्थ-अप्रमत्तगुणवान पर्यन्त सास या माठ प्रकृतिधोका बन्ध होता है। मिश्र, अपूर्षकरण और अनिवृत्तिवादर-गुलखानमें सारा प्रकृसिनोका, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानमें छह प्रकृतिौका और उपशान्तमोह आदि तीन गुणसानोंमें एक प्रकृतिका पन्ध होता है। अयोगिकेवलीगुणस्थानमें बन्ध नहीं होता MER ___ भावार्थ-तीसरेके सिवाय पहिलेसे लेकर सात तकके छह गुणवानोंमें मुल कर्मप्रकृतियाँ सात या भाठ बाँधी जाती है। आयु बाँधने के समय पाठका और उसे न बाँधनेके समय सातका पन्ध समझना चाहिये।
तीसरे, पाठये और नौ गुणस्वाममें मायुका बन्ध न होनेके कारण सातका ही बन्ध होता है। पाठघे और नौवे गुणस्थानमें परिणाम इतने अधिक विशुभ हो जाते हैं कि जिससे उनमें पायु. बन्ध-योग्य परिणाम ही नही रहते और तीसरे गुस्थानका खभाव ही ऐसा है कि उसमें पायुका पन्ध नहीं होता।
दसवें गुणवानमें भायु और मोहनीयका बम्ध न होने के कारण पहका बन्ध माना जाता है। परिणाम प्रसिविराद्ध हो जामेसे आयु.
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-यहा मे दरवी गाथा तकका विषय, पञ्चसंग्रहके ५३ भारती २, ३री और ५वं. गापामै ।