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कर्म ग्रन्थ भाग गर
पाप से और ग्यारहवं आदि तीन गुणस्थानों में योग से होता है । इस तरह तेरह गुणस्थानों में उसके सब मिलाकर चार हेतु होते हैं।
नरक-त्रिक, जाति-मतुष्क, स्थायर-चतुष्क, हुण्डसंस्थान, आतपनामफर्म, सेवात महमन, नपुसकवेर और मिथ्यात्व, इन सोलह प्रजातियों का बन्ध मिथ्यात्व-हेतुफ इसलिये कहा गया है कि ये प्रकतिमि महाले गुणमान में गांधी जानी हैं।
तियंजन-निक स्त्यानखि-त्रिक, बुभंग-त्रिक, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मध्यम संस्थान-चतुष्क, मध्यम संहनन-चतुष्क, नीचगोत्र, उग्रीतनामफर्म, अशुभबिहायोगति, स्त्रीवेद, वर्षभनाराघसंहनन, मनुष्यत्रिक, अप्रत्याख्यानावरग-चतुष्क और औदारिक-द्विक, इन पैसोस प्रकृतियों का बम्प बिन्हेतुक है; क्योंकि ये प्रकृतियो पहले गुषस्थान में मिथ्यात्व से और दूसरे आदि यथासंभव अगले गुणस्थानों में अविरति बांधी जाती हैं।
सातवेदनीय, नरक-त्रिक आदि उक्त सोलह, तिर्यञ्च निक आवि उक्त पैंतीस तथा तीर्थङ्कर नामकर्म और आहारक-तिक, इन पचपन प्रकृतियों को एक सौ घोस में से घटा थेने पर सह शेष पचती हैं। इन पैसठ प्रकृतियों का बन्ध त्रि-हेतुफ इस अपेक्षा से समझना चाहिये कि यह पहले गुणस्थान में मिथ्यास्य से, दूसरे आदि चार गुणस्थानों में अधिरति से और छ आदि चार गुणस्थानों में कषाघ से होता है ।
यद्यपि मिथ्यात्व के समय ओवरति आदि अगले तीन हेतु, अधिरति के समय कषाय आवि अगले दो हेतु और कषाब के समय घोगरूप हेतु अवश्य पाया जाता है । तथापि पहले गणस्यान में मिथ्यात्वकी, दूसरे आदि चार गगस्थानों में अधिरतिको और छठे आदि चार गणस्थानों में कषाय की प्रधानता तथा अन्य हेलुओं को अप्रधानता है। इस कारण इन ग स्थानों में क्रमशः केवल मिथ्यात्व, अविरति ब कवाय को बन्ध-हेतु कहा है।