Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
पिक परिणाम ही है, परन्तु कारण से कार्य को भिन्न न मानकर इस जगह मनोऽसंयम आदि को अविरति कहा है। देखा जाता है कि मन आदि का असंयम या जोव हिंसा ये सब कषाय- अन्य ही हैं । ५१ ॥
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नव सोल कसाया पन - र जोग इस उत्तरा उ सगवन्ना । इगचउपण लिंग, शेसु चउतिदुगपञ्चओ बंधो ।। ५२ ।। नव षोडश कशायाः पञ्चदश योगा इत्युत्तरास्तु सप्तपञ्चाशत् । एकचतुष्पञ्चत्रिगुणेषु चतुस्त्रि हो कप्रत्ययो बन्धः ॥४२॥
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अर्थ — कषाय के नौ और सोलह कुल पच्चीस भेव हैं। योग के पन्द्रह मेव हैं। इस प्रकार सब मिलाकर बन्धहेतुओं के उत्तर मे सत्तावन होते हैं।
एक (पहले) गुणस्थान में चारों हेतुओं से बन्ध होता है । दूसरे से पचिये तक चार गुणस्थानों में तीन हेतुओं से छठे से वसवें तक पाँच गुणस्थानों में वो हेतुओं से और ग्यारहवें से तेरहवें तक तीन गुण स्थानों में एक हेतु से बन्ध होता है ||५२||
अनन्तानुबन्धो
भावार्थ- हास्य, रति आदि नौ नोकलाय और क्रोष आदि सोलह कषाय हैं, जो पहले कर्मग्रन्थ में कड़े जा चुके हैं । कवाय के सहचारी तथा उत्तेजक होने के कारण हास्य आदि नो कहलाते 'नोकषाय' हैं पर हैं वे कषाय ही ।
पन्द्रह योगों का विस्तारपूर्वक वर्णन पहिले २४वी गाथा में हो चुका है । पचीस कषाय, पन्द्रह योग और पूर्व गाषा में कहे हुए पाँच मिध्यात्व तथा बारह अविरतियां, ये सब मिलाकर सत्तावन बन्धहेतु हुए
गुणस्थानों में मूलबन्ध हेतु ।
पहले गुणस्थान के समय मिध्यात्व आfa aारों हेतु पाये जाते इसलिये उस समय होने वाले कर्म वष में
वे धारों कारण हैं ।