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कर्मग्रन्थ माग चार
कार्मण और अनन्तानुबन्धि चतुष्क, इन सात को छोड़कर तेतालीस बध- हेतु है ।
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अविरतसम्य दृष्टिगुणस्थान में पूर्वोक्त तेतालीस तथा कार्मण, औवारिकमित्र और वेक्रियमिश्र ये सोम, कुल छ्यालीस बन्ध-हेतु है । देशविरतिगुण स्थान में कार्मण, औवारिकमिश्र, त्रस अविरति और अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क इन सात के सिवाय शेष उत्तालीस बम्ध हेतु हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ग्यारह अविरतियां, वरण- तुक, इन पन्द्रह को छोड़कर उक्त उन्तालीस में से चौबीस तथा आहारक- द्विक, कुल छबीस बश्ब हेतु हैं
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प्रत्यारूपाना
अप्रमत्त संयतगुणस्थान में पूर्वोक्त छजोस में से मिश्र विक (वैक्तिय मिश्र और आहारकमिश्र) के सिवाय शेष चौब्बीस बन्ध हेतु हैं । अपूर्वकरणगुणस्थान में वैकियकाययोग और आहारककाययोग को छोड़कर बाईस हेतु है ।। ५५|| ||२६|| ||५७||
मावार्थ - ५१ और ५२वीं गाथा में सत्तावन उत्तर बन्ध हेतु कहे गये हैं। इनमें से आहारक- द्विकके सिवाय शेष पचपन बन्धहेतु पहले गुणस्थान में पाये जाते हैं । आहारक-द्विक संयम-सापेक्ष है और इस गुणस्थान में संयम नहीं होता ।
का अभाव है, इसलिये इसमें आहारक-द्वि क
दूसरे गुणस्थान में पांचों मिध्यात्व नहीं हैं. इसी से उनको छोड़कर शेष पचास हेतु कहे गये हैं। तीसरे गृणस्थान में अनन्तानुबन्धिagoक नहीं है, क्योंकि उसका उदय दूसरे गुणस्थान तक ही है तथा इस गुणस्थान के समय मृत्यु न होने के कारण अपर्याप्त अवस्था भावी फार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग भी नहीं होते । इस प्रकार तीसरे गुणस्थान में सात बन्ध-हेतु घट जाने से उक्त पचास में से शेष तेतालीस हेतु हैं ।