Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्य भाग चार
दूसरे मावि चार गुणस्थानों में मिथ्यात्योदय के सिवाय अग्य सब हेतु रहते हैं। इससे उस समय होने वाले कर्मबन्ध में सीन कारण माने जाते हैं। छठे आदि पांच गुणस्थानों में मिथ्या रख की तरह अवि. रति भी नहीं है। इसलिये उस समय होने वाले कर्म:मन्ध में कवाय और योग, ये वो ही हेतु माने आते हैं। ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में कषाय भी नही होता, इस कारण उस समय होने वाले बन्ध में सिर्फ योग ही कारण माना जाता है। चौवहमें गणस्थान में योग का मी अमाव हो जाता है। अत एक उसमें बन्ध का एक भी कारण नहीं रहता ॥५२।।
एक सौ बीस प्रकृतियों के यथासंभव मूल बन्ध हेतु' । चउमिछमिच्छविरई,-पच्चईया सायसोलपणतीसा । जोग विणु तिरस्वईया,-हारगजिणयज्ज सेसाओ ॥५३।।
चतुमिथ्यामिथ्याविरतिप्रत्ययका सातषोडशपञ्चविंशतः । योगान् विना त्रिप्रत्यायिका आहारवाजिनवजशेषाः ।।५।।
अर्थ-सातवेदनीयका बन्ध मिथ्यात्व आदि चारों हेतुओं से होता है । नरक-निक आबि सोलह प्रकृतियों का बन्ध मिण्यास्थमात्रसे होता है। तिर्यञ्च-त्रिक आदि पंतीस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व
और अबिरसि, इन दो हेतुओं से होता है । तीर्थङ्कर और आधारकद्विक को छोड़कर शेष सब । ज्ञानाथ रणीय आदि पंसठ) प्रकृतियों का बन्ध, मिण्यारव, अचिगति और कषाय, इन तीन हेतुओं से होता है ॥५३।।
भावार्थ-बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ एक सौ बीस हैं । इनमें से सातवेदनीय का बध चतुर्हेतुक (पारों हेतुओं से होने वाला। कहा गया है । सो इस अपेक्षा से कि वह पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व से, वूसरे आदि चार गुणस्थानों में अविरति से, छठे आदि चार गुणस्थानों में
१-खिये, परिशिष्ट प ।'