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कर्मग्रन्थ भाग चार
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मिध्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से होता है और जिससे वाह संशय आणि घोष पैदा होते हैं । (२) 'अविरति वह परिणाम है, जो अश्यायामावरणकषाय के उदय से होता है और जो चारित्र को रोकता है । ( ३ ) 'कवाय', वह परिणाम है, जो चारित्र मोहनीय के उदय से होता है और जिससे क्षमा, विनय, सरलता, संतोष, गम्भीरता आदि गुण प्रगट होने नहीं पाते या बहुत कम प्रमाण में प्रकट होते हैं। (४) 'योग', आत्म-प्रवेशों के परिस्पन्द ( चाञ्चल्य-j) को कहते हैं, जो मन, वचन या शरीर के योग्य पुवग्लों के आलम्बन से होता है ।। ५० ।। बन्ध-हेतुओं के उत्तरमेव तथा गुणस्थानों में मूल बन्ध हेतु' । [ दो गाथाओं से । ]
अभिगहियमभिगमन। पचमिच्छ वार अविर, मणरकणानियम छजियहो ॥५१॥ अभिग्रहिकमनाभिग्रहिकामनिवेशिक सांशयिकमनाभोगम् । पञ्च मिथ्यात्वति द्वादशाविरतयो, मनःकरणानियमः षड्जीवबधः ॥ ३५११० अर्थ- मिस्पारण के पश्च भेव है: -१ आभिग्रहिक, २. अनभिहिक ३ आमिनिवेशिक ४. सांशयिक और अनाश्रोत ।
अविरति के बारह मे है । अंसे:-मन और पाँच इन्द्रियों, इन घर को नियम में न रखना, ये छह सभा पृथ्वीकाय आदि छह कार्यों का वध करना, ये छह ५१
१ - यह विषय पञ्चसंग्रह द्वा० ४ की २ से ४ तक की गाथाओं में तथा गोम्मटमार कर्मकाण्ड की ७८६ से ७८८ तक की गाथाओं में है । गोम्मटसार में मिध्यात्व के १ एकान्त, २ विपरीत ३ वैनयिक ४ सांशयिक और ५ अज्ञान ये पाँच प्रकार हैं ।
अविरति के लिये जोवकाण्ड की २६ तथा ४७७वीं गाया और कषाय व योग के लिये क्रमशः उसको कषाय व योगमागंणा देखनी चाहिये । तस्वार्थ के वें अध्याय के १ले सूत्र के भाष्य में मिथ्यात्व के अभिगृहीत और अनमिगृहीत, ये दो ही भेद हैं ।