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कर्मप्रत्य भाग चार
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शुरुकलेश्या है । चोरहवें
गुणस्थान में तेजः पद्म और शुल्क, ये तीन लेयाएं हैं। आठवें से लेकर तेरहवें तक छह गुणस्थानों में केवल गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं है । बम्ध हेतु कर्म-बम्ध के चार हेतु हैं । ३ कयाय और ४ योग ॥ ५० ॥ भावार्थ प्रत्येक ले
१ मिथ्यात्व २ अविरति
व्ययसायस्थान ( संहकेश - मिश्रित
असंतपरिणाम ) रूप है। इसलिये उसके. तरेव्र तीव्रतर तीव्रतम, मन्द मच्चतर मन्दतम, आदि उतने ही मेब समझने चाहिये। अत एव कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं को के गुणस्थान में अतिमन्दतम और पहले गुणस्थान में अतितीव्रतम माम
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फर छह गुणस्थानों तक उनका सम्बन्ध कहा गया है। सातवें गुणस्थान में जातं तथा रोड-ध्यान न होने के कारण परिणाम इतने विशुद्ध रहते हैं, जिससे उस गुणस्थान में अशुभ लेश्याएं सर्वथा महा होतो; किन्तु तीन शुभ लेश्याएं ही होती हूं। पहले गुणस्थान में तेज और पद्य लेश्या को अतिमन्बतम और सातवें गुणस्थान में अति
इसका विवेचन श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने भाष्य की २७४१ ले४२ तक की गाथाओं में, श्रीहरिभद्रसूरि ने अपनी टीका में और मलधारी श्रामचन्द्रसूरि न भाष्यवृत्ति में विस्तारपूर्वक किया है। इस विषय के लिये लोकप्रकाश के ३रे सगं क ३१३ से ३२३ तक के श्लोक द्रष्टव्य है ।
चौथा गुणस्थान प्राप्त होने के समय ब्रव्यलेश्या शुभ और अशुभ, दोनों मानी जाती हैं और भावलेश्या शुभ ही । इसलिये यह शङ्का होती है 1 कि क्या अशुभ द्रव्यलेश्यावालों को भी शुभ भावलेश्या होती है ?
इसका समाधान यह है कि द्रव्यलक्ष्या और भावलेश्या के सम्बन्ध में यह नियम नहीं है कि दोनों समान ही होनी चाहिये, क्योंकि यद्यपि मनुष्य तिपत्र, जिनकी द्रव्यलेच्या अस्थिर होती है, उनमे तो जैसी द्रव्यलेश्या वैसी हां भावलेश्या होती है । पर देवतारक, जिनकी द्रव्यलेश्या अवस्थित स्थिर) मानी गयी है, उनके विषय में इससे उलटा है। अर्थात् नारकों में दया के होते हुए भी भाबलेश्या शुभ हो सकती है। इसी प्रकार शुभ द्रव्यश्यावाले देवों में भावलेश्या अशुभ भी हो सकती हैं | इस बात को खुलासे से समझने के लिये प्रज्ञापना का १७ वाँ पद तथा उसकी टीका देखनी चाहिये ।
अशुभ