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कर्मग्रन्थ भाग चार तीव्रतम इसी प्रकार शुल्कलेश्या को भी पहले गुणस्थान में मतिमम और तेरहवें में अतितीव्रतम मानकर उपर्युक्त रीति से गुणस्थानों में उनका सम्बन्ध बतलाया है!
चार बन्ध- हेतु' -- (१) 'मिम्याश्व' मात्मा का वह परिणाम है, जो
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१- ये ही बार बन्ध हेतु पञ्चसंग्रह - द्वा० ४ की १ ली गाथा तथा फर्मकाण्ड की ७८६वीं गाया में है। यद्यपि तत्त्वार्थ के वें अध्याय के १ ले सूत्र में उक्त चार हेतुओं के अतिरिक्त प्रमाद को भी बन्धहेतु माना है, परन्तु उसका समावेश अविरति कषाय आदि हेतुओं में हो जाता है । जैसे:- विषय सेवम रूप प्रमाद, अविरति और सब्धि प्रयोगरूप प्रमाद, योग है। वस्तुतः कषाय और योग, ये दो ही बम्ध हेतु समझने चाहिये; मिध्यात्व और अविरति कषाय के ही अन्तर्गत हैं । इसी अभिप्राय से पांचवें कर्मग्रन्थ की गाथा में दो ही बन्धहेतु माने गये हैं ।
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इस जगह कर्म-बन्ध के सामान्य हेतु दिखाये हैं, सामान्यभयदृष्टि से ; अत एव उन्हें अन्तरङ्ग हेतु समझना चाहिये । पहले कर्मग्रन्थ की ५४ से ६१ तक गाथाओं में; तत्वार्थ के ६ अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्र में तथा कर्म काण्ड की ८०० से ८१० तक की गाथाओं में हर एक कर्म के अलग-अलग बन्धहेतु कहे हुए हैं, सो व्यवहारदृष्टि से अत एष उन्हें बहिरङ्ग हेतु समझना चाहिये ।
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शङ्का - प्रत्येक समय में आयु के सिवाय सात कर्मों का बाँधा जाना प्रज्ञापना के २४वें पद में कहा गया है, इसलिये शान, ज्ञानी आदि परद्वेष या उनका निहृव करते समय भी ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय की तरह अन्य कर्मों का बन्ध होता ही है। इस अवस्था में 'तत्वदोषनिहृय' अदि तत्त्वार्थ के ६ अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्रों मे कहे हुए आस्रव, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय आदि कर्म के विशेष हेतु कैसे जा सकते हैं ?
समाधान-तत्प्रदोषनिव आदि आस्रवों को प्रत्येक कर्म का जो विशेष हेतु कहा है, सो अनुभागबन्ध की अपेक्षा से, प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से नहीं । अर्थात् किसी भी आस्तव के सेवन के समय प्रकृतिबन्ध सब प्रकार का होता है | अनुभागबन्ध में फर्क है । जैसे: ज्ञान, ज्ञानी, ज्ञानोपकरण आदि पर प्रदूष करने के समय ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की तरह अन्य प्रकृतिओं का बन्ध होता है, पर उस समय अनुभागबन्ध विशेषरूप से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकर्म का ही होता है । सारांश, विशेष हेतुओं का विभाग अनुभागबन्ध को अपेक्षा से किया गया है, प्रकृति-बन्ध की अपेक्षा से नहीं । -सत्वार्थ अ १०६, सू० २७ की सर्वार्थ सिद्धि ।