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कर्मग्रन्थ माग चार
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परित्याग, दोनों समय पक्रियमिष और माहारकमिश्र का भ्यबहार करना चाहिये, मोवारिकभित्र का नहीं।
(ग)--सिद्धान्ती', एफेन्द्रियों में सासाटनगुणस्थान को नहीं मानते, पर कामप्रन्यिक मानते है।
उक्त विषयों के दिमाग विषारों में जो कहीं नहीं -म :--
(१)--सिवान्ती, अवधिवर्शन को पहले बारह गुणस्पानों में मामले है, पर कार्मपन्थिक उसे धोखे से बारहवं तक मौ गुणस्थानों में, (२) सिद्धान्त में प्रन्थि-मेव के मनन्तर बायोपमिकसम्यक्तवा का होना मामा गया है, किन्तु कर्मग्रन्थ में औपचामिकसम्यक्तव का होना ॥४६॥
१--भगवती, प्रशापना और जीवाभिगमसूत्र में एकेन्द्रियों को अशानी हो कहा है। इससे सिद्ध है कि उनमें सासादन-भाष सिद्धाम्ससम्मत नहीं है । यदि सम्मत होता तो द्वीन्द्रिय आदि की तरह एकेन्द्रियों को भी ज्ञानी कहते ।
'एगिबियाणं भंते । कि माणी अमाणो? गोयमा ! मो नम्णी, नियमा मन्त्राणी।"
-- भगवती-श० ८, उ० २ । एकेन्द्रिय मे सासादन-भाव मानने का कार्मग्रन्थिक-मव पञ्चसंग्रह में निदिष्ट है। यथा:
'इगिविगिलेसु जयतं' इत्यादि । --द्वा० १, गा० २८ |
दिगम्बर-संप्रदाय में मैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिक दोनों मत संगृहीत हैं । कर्मकाण्ड की ११३ से ११५ तक की गाथा देखने से एकेन्द्रियों में सासादन-भाव का स्वीकार स्पष्ट मालूम होता है । तत्त्वार्थ, अ० १ के ८वें सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में तथा जीवकाण्ड की ६७७वीं गाथा में सैद्धान्तिक मत है।