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कर्मग्रन्थ भाग चार
(क) सिसाम्स' में दूसरे गणस्थान के समय मति, श्रुत आदिको ज्ञान माना है, अजान मही । इससे उलटा कर्मपन्य में अज्ञान भामा है, अमान नहीं । सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि पूसरे गुणस्पान में वर्तमान जीव पद्यपि मिश्यास्त्र के संमुख है, पर मिण्यारवी मही; उसमें सम्यक्त्व का अंश होने से कुछ विशुद्धि हैं। इसलिये उसके शाम को ज्ञान मानना चाहिये । कर्मप्रन्थ का आशय यह है कि द्वितीय गुणास्थामवर्ती जीव मिथ्यात्वी न सही, पर वह मिथ्यात्व के अभिमुख है। इसलिये उसके परिणाम में मालिन्य अधिक होता है। इससे उसके ज्ञान को अज्ञान कहना चाहिये ।
१--भगवती में वीन्द्रियों को ज्ञानी भी कहा है। इस कथन से यह प्रमाणित होता है कि सासादन-अवस्था में ज्ञान मान करके ही सिद्धान्ती दीन्द्रियों को शानी कहते हैं। क्योंकि उनमें दूसरे से आगे सब गुणस्थानों का अभाव ही है। पञ्चेन्द्रियों को ज्ञानी कहा है, उस समर्थन सो तीसरे, चौथे आदि गुणस्थानों की अपेक्षा से भी किया जा सकता है। पर द्वीन्द्रियों में तीसरे आदि गुणस्थानों का अभाव होने के कारण सिर्फ सासादन गुणस्थान की अपेक्षा से ही शामित्व घटाया जा सकता है। यह बात प्रज्ञापना-टीका में स्पष्ट लिखी हुई है । उसमें कहा है कि द्वीन्द्रिय को दो ज्ञान कैसे घट सकते हैं ? उसर--उसको अपर्याप्सअवस्था में सासादनगुणस्थान होता है, इस अपेक्षा से दो शान घट सकते हैं ।
बेइंतियाणं भंते । कि नाणी अनाणी ? गोयमा ! णाणो वि अण्णाणी वि । जे नाणी ते नियमा पुनाणी । तं जहा - आमिणिमोहिपनाणी सुयणाणी । जे अण्णाणी ते वि नियमा तुअन्नाणी । पहामा अन्नाणी सुयअन्नाणी य ।" --भगवती शतक ८० २।
"बेवियरस वो णाणा कहं लम्भति ? अण्णा, सासायणं पन्च तस्सापज्जत पस्स दो गाणा लति ।"
-प्रशापना टीका । दूसरे गुणस्थान के समय कर्मग्रन्थ के मतानुसार अजान माना जाता है, सो २० तथा ४८वी गाथा से स्पष्ट है । गोम्मटसार में कार्मअधिक ही मत है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की ६८६ सथा ५०४ वों गाथा ।