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वर्मग्रन्थ भाग चार
१३७
( ३ ) - गुणस्थानों में उपयोग' |
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तिअनरणदुदंसाहम, दुगे अजद बेसि नातं ते मोसि मीसा समणा, जयाइ केवलद अंगे ॥ ४८ ॥
व्यज्ञान द्रिदर्शमादिमद्धिकेऽयते देशे शानदर्शनत्रिकम् । ते मिश्र मिश्राः समनमो यत्तादिषु केवलद्विकमन्तष्टिके ॥४८॥
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अर्थ- मध्यात्व और सासावन, इन दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान और दो दर्शन ये पाँच उपयोग हैं | अविरतसभ्य दृष्टि, वेशविति इन वो गुणस्थानों में सीन ज्ञान, लीन वन मे छह उपयोग हैं। मिश्रगुणस्थान में भोज्ञान तीन वर्शन ये छह उपयोग हैं, पर ज्ञान मिश्रित, अज्ञान मिश्रित होते हैं । प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोहनीय तक सात गुणस्थानों में उक्त छह और मनः पर्यायशान, ये सात उपयोग हैं । सयोगिकेवली और अयोग केवली इन वो गुणस्थानों में केवलज्ञान और कंबल वर्शन, ये वो उपयोग हैं ॥४८॥
भावार्थ- पहले और दूसरे गुणस्थान में सम्यक् का अभाव है। इसीसे उनमें सम्यक्त्व के सहचारी पाँच ज्ञान, अवषिर्शन और केवलर्शन, ये सात उपयोग नहीं होते, शेष पाँच होते हैं ।
चौथे और पांचवें गुणस्थान में मिध्यात्व न होने से तीन अझ न सर्वविति न होने से मनः पर्यायज्ञान और घातिकर्म का अभाव म होने से केवल विक, ये कुल छह उपयोग नही होते, शेष छह होते हैं।
१ - यह विषय पञ्चसंग्रह द्वा० १ की १६ -- २०वीं, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ को ७०-७१वीं और गोम्मटसार- जीवकाण्ड को ७०४वीं - गाथा में है ।