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कर्मग्रन्थ भाग चार
(ख) सिद्धान्त' का मानना है कि लब्धि द्वारा वैक्रिय और आहारक- शरीर बनाते समय औदारिक मिश्र काययोग होता है; पर त्यागते समय क्रम से वैकिय मिश्र और आहारकमित्र होता है। इसके स्थान में कर्मग्रन्थ का मानना है कि उक्त दोनों शरीर बनाते तथा त्याग्रले समय क्रम से क्रियमिश्र और आहारक मिश्रयोग हो होता है, मौवारिक मिश्र नहीं । सिद्धान्त का आशय यह है कि लब्धि से क्रिय या आहारक-वशरीर बनाया जाता है, उस समय इन शरीरों के योग्य पुवरल, औदारिक शरहेर के द्वारा ही प्रण किये जाते हैं, इसलिये औवारिक शरीर की प्रधानता होने के कारण उक्त दोनों शरीर बनाते समय औदारिक मिश्रकामयोग का व्यवहार करना चाहिये । परन्तु परित्याग के समय औवारिक शरीर को प्रधानता नहीं रहती । उस समय क्रिय या माहारक शरीर का ही व्यापार मुख्य होने के कारण वैक्रियमिश्र तथा आहारकमिश्र का व्यवहार करना चाहिये । फार्मम्पिक-मत का लास्पयं इतना ही है कि चाहे व्यापार किसी शरीर का प्रधान हो, पर औवारिक शरीर जन्म- सिद्ध है और देत्रिय या आहारक- शरीर सम्धि जन्य है; इसलिये विशिष्ट -जय शरीर की प्रधानता को ध्यान में रखकर आरम्भ और
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१- यह मत प्रशापना के इस उल्लेख से स्पष्ट है:
ओरालिय सरी एकायव्ययोगे मोरालियमीससरीरम्पयोगे लेज वियसरी कयिप्ययोगे आहारकसरीरकायप्पओगे आहारकमीससरीरकाययोगे ।" पद० १६ तथा उसकी टीका, पृ० ३१७ कर्मग्रन्थ का मत तो ४६ और ४७वीं गाथा में पांचवें और छठे गुणस्थान में क्रम से ग्यारह और तेरह योग दिनाये है, इसीसे स्पष्ट है । गोम्मटसार का मतक मंग्रन्थ के समान हो जान पड़ता है; क्योंकि उसमें पाँचवें और छठे किसी गुणस्थान में बोदारिक मिश्रकाययोग नहीं माना है। देखिये. जीवकाण्ड की ७०३री गाथा |