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वनाथ नग च।
(३)-गण स्थानाधिकार ।।
(१)- गणस्थानो में विस्थान' । सम्वजियठाण मिच्छे. सग सासणि पण आज्ज सन्निदुर्ग ।
संमे सन्नी दुबिहो. सेसेसु संपज्जत्तो ।। ४५ ।। सर्वाणि जीवस्थानानि मिथ्या ये..प्स मासादनं पनापर्याप्ताः सज्ञिनिकम् । राम्पत्ये शो द्विविधः, शेपेष जिपर्याप्त; || ४५ ।।
अर्थ- मिथ्यात्वगुण स्थान में सब जीस्थान हैं । सासावन में पांच अपर्याप्त । बाबर एफस्त्रिय, द्वात्रिय, त्रीन्द्रिघ, चतुरिन्द्रिय और असजि-पञ्चेन्द्रिय तथा दो संज्ञी । अपति और पर्याप्त कुल सात जोवस्थान हैं । अविरतसम्यपिट गुणस्थान में वो सजी ( अपर्याप्त और पर्याप्त | जीवस्थान हैं । उक्त सोम के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों में पर्याप्त संनोजीवस्यान है ।। ४५ ॥
१- गुणस्थान में जवस्थान वा जो विचार यहाँ है, गोम्मटगार में उससे भिन्न प्रकार का है । उसमें दूसरे, छठे और तेरहवें गुणस्थान में अपर्याप्त संज्ञी, ये दो जीनस्थान माने गए हैं। - जीव०, गा० ६६८ |
गोम्मटसार का यह वर्णन, अपेक्षाकृत है । कर्मकाण्ड की ११३वीं गाथा में अपर्याप्त एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय आदि को दूसरे गणस्थान का अधिकारी मानकर उनको जीवाड़ में पहले गुणस्थानमात्र का अधिकारी कहा है; सो द्वितीय गणस्थानवती अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि जीवों की अल्पता की अपेक्षा से । छठे गुणस्थान के अधिकारी को अपर्याप्त कहा है। सो आहारकमिश्नकाययोग की अपेक्षा से। -जीवकाण्ड, गा० १२६ ।
तेरहवें गुणस्थान के अधिकारी मयोगी के चली को अपर्याप्त कहा है, शो योग की अपूर्णता की अपेक्षा से । -जीवकाण्ड, गा० १२५ ।