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कर्मग्रन्थ भाग चार
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(२) कालद्रव्य, मनुष्य क्षेत्रमात्र नहीं है किन्तु का है। वह लोक व्यापी होकर भी धर्म-अस्तिकायकी तरह स्कन्ध नहीं है; किन्तु अणुरूप है। इसके अणुओंकी संख्या लोकाकाठमके प्रदेशों से बराबर है । वे अणु गतिहीन होनेसे जहाँ तहाँ अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित रहते हैं इनका कोई स्कन्ध नहीं बनता। इस कारण इनमें तिर्यक प्रचल ( स्कन्ध होनेकी शक्ति नहीं है । इसी सबब से कालद्रव्यको अस्तिकायमें नहीं गिना है । तिर्यक प्रचय न होनेपर भी ऊर्ध्व प्रचय है । इससे प्रत्येक काल - अणु में लगातार पर्याय हुआ करते हैं। ये ही पर्याय समय' कहलाते हैं। एक-एक काल-अणुके अनन्त समय पर्याय समझने चाहिये । समय- पर्याय ही अन्य द्रव्योंके प्रयायोंका निमित्तकारण है। नवीनसा-पुराणता जयेष्ठता- कनिष्ठता आदि सब अवस्थाएँ, काल अणुके समय प्रवाह की बदौलत ही समझनी सहिये। पुद्ग्ल-परमाणुको लोक आकास के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मन्दगतिसे जाने में जितनी देर होती है, उतनी देर में काल अणुका एक समय-पर्याय व्यक्त होता है । अर्थात् समय-पर्याय और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तककी परमाणुकी मन्द गति, इन दोनों का परिमाण बराबर है । यह मन्तव्य दिगम्बरोंमें हैं ।
वस्तुस्थिति क्या है: - निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो कालको अलग द्रव्य माननेकी को कोई जरूरत नहीं है। उसे जीवजीवके पर्यायरूप मानने से ही सब कार्य व सव व्यवहार उपपन्न हो जाते हैं। इसलिये यही पक्ष, तात्त्विक है, अन्य पक्ष, व्यावहारिक व औपचारिक हैं । कालको मनुष्य क्षेत्र प्रमाण माननेका पक्ष स्थूल लोक व्यवहारपर निर्भर है। और उसे अणुरूप माननेका पक्ष औपचारिक है, ऐसा स्वीकार न किया जाय तो यह प्रश्न होता है कि जब मनुष्य क्षेत्र से बाहर भी नवत्त्व पुराणत्व आदि माव होते हैं, तब फिर कालको मनुष्य क्षेत्र में ही कैसे माना जा सकता है? दूसरे यह मानने में क्या युक्ति है कि काल, ज्योतिष चक्के संचारको अपेक्षा रखता है ? यदि अपेक्षा रखता भी हो तो क्या वह लोक-व्यापी होकर ज्योतिषचक्र संचारकी मदद नहीं ले सकता ? इसलिये उसको मनुष्य क्षेत्र प्रमाण मानने की कल्पना, स्थूल लोक व्यवहारपर निर्भर है— कालको अनुरूप मानने की कल्पना औपचारिक है। प्रत्येक पुद्ग्ल- परमाणुको ही उपचार से