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कर्मग्रम्य भाग चार
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कहते हैं। ऐसे असंख्यात पर्यायकि पुञ्जको 'भावलिका' कहते है । अनेक बालिकाओं को मुर्हत और तीस मुर्हत को दिन रात' कहते हैं। दो पर्यायों मैंसे जो पहले हुआ हो, वह 'पुराण' और जो पीछेसे हुआ हो, वह 'नवीन' कहलाता है दो जीवधारियोंमें से जो पीछे से जनमा हो, वह 'कनिष्ट' और जो पहिले जनमा हो, वह 'ज्येष्ठ' कहलाता है । इस प्रकार विचार करने से यही जान पड़ता है कि समय आवलिका आदि सब व्यवहार और नवीनता आदि सब व्यवहार और नवीनता आदि मंत्र अवस्थाएँ, विशेष विशेष प्रकार के प्रयायों को ही अर्थात् निविभाग पर्याय और उनके छोटे-बड़े बुद्धि-कल्पित समूहों के ही संकेत है। पर्याय, यह जीव अजीवको किया है, जो किसी तत्त्वान्तरकी प्रेरणाके सिवाय ही हुआ करती हैं । अर्थात् जीव अजीब दोनों अपने-अपने गर्भावरूपमें अ.प ही फिर उमा करते हैं वस्तुतः जीव अजीव पर्याय पुञ्जको हो काल कहना चाहिये | काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है ।
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दूसरे पक्ष का तात्प - जिम प्रकार जीव-पुद्ग्ल में गति स्थिति करने का स्वभाव होनेपर भी उस कार्य के लिये विभिनकारणरूपसे धर्म-अस्तिकाय तत्त्व माने जाते हैं। इसी प्रकार जीव अजीव पर्याय परिणमनक) स्वभाव होनेपर भी उसके लिये निमित्तकारणरूपसे काल-द्रव्य मानना चाहिये । यदि निमित्तकारणरूपसे काल न माना जाय तो धर्म अस्तिकाय और अधर्मअस्तिकाय मानने में बोई युक्ति नहीं ।
दूसरे पक्ष में मत भेदः --- कालको स्वतन्त्र द्रव्य माननेवालोंमें भा उसके स्वरूप के सम्बन्ध में दो मत हैं ।
(१) कालद्रव्य, मनुष्य-क्षेत्रमात्र में ज्योतिष चक्र के गति क्षेत्र में वर्तमान है 1 वह मनुष्य-क्षेत्र प्रभाग होकर भी सम्पूर्ण लोकके परिवर्तनोंका निमित्त बनता है । काल, अपना कार्य, ज्योतिष चक्रको गतिकी मदद करता है । इसलिये मनुष्य क्षेत्र से बाहर कालद्रव्य न माननार उसे मनुष्य-क्षेत्र - प्रमाण ही मानना युक्त है। यह मत धर्मग्रहणी आदि श्वेताम्बर पन्थों में है !
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