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कर्मग्रन्य भाग चार
परिशिष्ट "" ! १० ११७, पंक्ति १८के 'काल' शब्दपर--
"काल के सम्बन्धमें जैन और वैदिक, दोनों दर्शनों में करीब ढाई हजार वर्ष पहलेसे दो पक्ष चले आते हैं। श्वेताम्बर-ग्रन्थों में दोनों पक्ष वर्णित हैं । दिगम्बर-ग्रन्थों में एक ही पक्ष नजर आता है।
[१) पहला पक्ष, कालको स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता । वह मानता है कि जीव और अजीव-द्रव्यका पर्याय-प्रवाह ही 'काल' है । इस पक्ष के अनुसार जीवाजीव-न ट्यका पर्याय-परिणमन ही उपचारसे काल माना जाता है। इसलिये वस्तुतः जीव और अजीयको ही काल-द्रव्य समझना चाहिये वह उनसे अलग तत्त्व नहीं है। यह पक्ष ‘जी गाभिन आदि में है।
__ आगमके बादके ग्रन्थोंमें, जैसे:-तत्त्वार्थसूत्र में वाचक' उमास्वातिने हात्रिशिकामे श्री सिद्धसेन दिवाकरने, विशेषावश्यक-माध्वमें श्रीजिनभद्रगणि समाश्रमणने, धर्मसंग्रहणी में श्रीहरिभद्र मूरिने, योगशास्त्र में, श्रीहेमचन्द्रसूरिने द्रव्य-गुण-पर्यायके रास में थी उपाध्याय प्रशोविजयजीने, लोकप्रकाश में श्रीविनयविजयजी ने और नयचक्रसार तथा आगमसारमें थीदवचन्द्रजीने आगम-गत उक्त दोनों पक्षोंका उल्लेख किया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में सिर्फ दूसरे पक्षका स्वीकार है, जो सबसे पहिले बीकुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थों मे मिलता है । इसके बाद पूज्यपादस्वामी. भट्टारक श्रीअकल देव, विद्यानन्दस्वामी, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और बनारसीदास आदिने भी उस एक ही पक्षका उल्लेख किया है।
पहले 'पक्षका तात्पर्यः---पहला पक्ष कहता है कि समय, आवलिका, मुईत, दिन-रात आदि जो व्यवहार, काल-साध्य बतलाये जाते हैं या नवी. नता-पुगणता, जोष्टता कनिष्ठता आदि जो अवस्थाएँ, काल-साध्य बतलायी जाती हैं, वे सब क्रिया-विशेष (पर्याय-विशेष) के ही संकेत हैं । जैसे:जीब मा अजीवका जो पर्याय, अविभाज्य है, अर्थात् बुद्धिसे भी जिकसा दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता, उस आखिरी अतिसूक्ष्म पर्यायको 'समय'