Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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काला रामझना चाहिये और कालाशुके अप्रदेशत्व तरह कर लेनी चाहिये ।
कर्म ग्रन्थ भाग चार
कथनको सङ्गति इसी
ऐसा न मानकर कालाणुको स्वतन्त्र माननेमें प्रश्न यह होता है कि यदि काल स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है तो फिर वह धर्म-अस्तिकायकी तरह स्कन्धरूप क्यों नहीं माना जाता है ? इसके सिवाय एक यह भी प्रश्न है कि जीव अजीव पर्याय में तो निमित्तकरण समय पर्याय है। पर समयपर्याय में निमित्तकारण क्या है ? यदि वह स्वाभाविक होनेसे अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रखता तो फिर जीव-अजीव पर्याय भी स्वाभाविक क्यों माने जायँ ? यदि रामय-पर्याय वास्ते अन्य निमित्तकी कल्पना की जाय तो अनवस्था आती है। इसलिये अणु- पक्षको औपचारिक मानना ही ठीक है। वैदिक दर्शन में कालका स्वरूपः वैदिकदर्शनों में भी कालके सम्बन्ध में मुख्य दो पक्ष हैं । वैशेषिक दर्शन - अ० २ ० २, मूत्र ६– १० तथा न्यायदर्शन, कालको सर्व व्यापी स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं । सांख्य-अ ०२, सूत्र १२ योग तथा वेदान्त आदि दर्शन-कालको स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर उसे प्रकृति-पुरुष ( जड़-चेतन) का ही रूप मानते हैं । यह दूसरा पक्ष, निश्चय दष्टि-मूलक है और पहला पक्ष व्यवहार मूलक |
जैन दर्शन में जिसको 'समय' और दर्शनान्तरोंमें जिसको 'क्षण' कहा है। उसका स्वरूप जानने के लिये तथा 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वह केवल लौकिक दृष्टिवानोंकी व्यववहार निर्वाहके लिये क्षनानुक्रम के विषय में की हुई कल्पनामात्र है। इस बात को स्पष्ट समझने के लिये योगदर्शन पा० ३ ० ५२० भाध्य देखना चाहिये। उक्त भाष्य में कालसंबन्धी
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जो विचार है, वही निश्चय-दृष्टि-मूलक; अत एव तात्विक जान पड़ता है। विज्ञानकी सम्मतिः- :- अ ज कल विज्ञानकी गति सस्य दिशाकी ओर | इसलिये काल-मभ्बन्धी विचारोंको उस दृष्टि के अनुसार भी देखना चाहिये । वैज्ञानिक लोग भी कालको दिशा की तरह काल्पनिक मानते हैं, वास्तविक नहीं |
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अत सब तरह से विचार करनेपर यही निश्चय होता है कि कालको अलग स्वतन्त्र द्वन्य माननेमें छतर प्रमाण नहीं है ।
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