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कर्मग्रन्थ भाग चार
१४.
परिशिष्ट "६"। पु०.१०४, पंक्ति के 'केवलिसमुसात' वाच पर-- [फेलिसमुद्धात के सम्बन्धको कुछ बातोंका विचार:--]
(क) पूर्वभावी क्रिया-केवनिसमुद्धात रचनेके पहले एक विशेष क्रिया की जाती है, जो शुभयोगरूप है, जिसकी स्थिति अन्तर्मुहूत्त प्रमाण है और जिसका कार्य उदयालिका में कर्मदालकोंका निक्षेप करना है। इस क्रियाविशेषको 'आमोजिककाकरण' कहते हैं । मोक्षकी ओर आवजित (झुके हुए) आत्माकद्वारा किये जानके कारण इसको 'आवभितकरण' कहते हैं । और सब केवलज्ञानियोंक द्वारा अवश्य किये जाने के कारण इसको 'आवश्पककरण भी कहते हैं । श्वेताम्बर-साहित्ममें आयोजिकाकरण आदि तीनों संज्ञायें प्रसिद्ध हैं।-बिशे. आ०, गा० ३०५०, ५५; तथा पञ्च द्वा० १. गा०१६ की टीका।
दिगम्बर-साहित्यमें सिर्फ 'आवजितकरण' संज्ञा प्रसिद्ध है । लक्षण भी उसमें स्पष्ट है
"हेडा वंहस्संतो'-मुहत्तमानस्जि हवे करणं । तं च समुग्धावस्य य, अहिमुहमावो जिणिवस्स ।'
-लब्धिसार, गा० ११७ । स्त्र ) वे वलिागुतालका प्रयोजन और विधान-समय:
जब वेदनीय आदि अधातिव की स्थिति तथा दलिक, आयुकर्मकी स्थिति तथा दलिय से अधिक हों तद उनको आपसमें बराबर करने के लिये केवलिस मुद्धात करना पड़ता है । इसका विधान, अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण आयु बाकी रहने के समय होता है।
(ग) स्वामी--- केवलज्ञानी ही केवलि समुद्धातका रचते हैं। (घ) काल-मान-कैलिसमुद्धातका काल-मान आठ समयका है।
(ड) प्रक्रिया-प्रथ पमय में आत्माक प्रदेशोंको शरीरसे बाहर . निकालकर फैला दिया जाता है । उस समय उनका आकार, दण्ड जैसा बनता है । आत्मप्रदेशोंका यह दण्ड, ऊँचाई में लोकक ऊपर से नीचे तक,