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कर्मग्रन्थ भाग चार परिशिष्ट "थ"। - पाठ १०१, पक्ति १२के 'भावार्थ परइस जगह चक्षुर्दर्शनमें तेरह योग माने गये हैं, पर श्रीमलयगिरिजीने उसमें ग्यारह पोग बतलाये हैं। कार्मण, औदारिवामित्र, वैत्रियभिश्न और. आहारकमिध, चार योग छोड़ दिये हैं।
-पश्चा० १ की १२वी गाथाकी टीका। ग्यारह माननेका तात्पर्य यह है कि जैसे अपरित-अवस्थामें चक्षदर्शन न होनेमे उममें कार्मण और औदारिकभिश्र, ये दो अपर्याप्त-अवस्था-भावी योग नहीं होते, वैसे ही क्रियमित्र या आहारकमिश्न-काययोग रहता है, तब तक अर्थात् वैक्रियशरीर या आहारकशरीर अपूर्ण हो तब तक चक्षुर्दशन नहीं होता,इसलिये उसमें वक्रियमिश्र और आहारकमिथ-योग भी न माननेचाहिये। . इसपर यह शङ्का हो सकती है कि अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रिमप्राप्ति पूर्ण बन जानेके बाद १७वीं गाया में उल्लिखित मतान्तर के अनुसार यदि चक्षुदर्शन मान लिया जाय तो उसमें जौदारिवामिश्चकाययोग, जो कि अपपर्याप्त-अवस्था-भावी है, उरा का अभाव कैसे माना जा सकता है।
इस शसाका समाधान यह किया जा सकता है कि पञ्चमंग्रहमें एक ऐमा मतान्तर है, जो कि अपर्याप्त-अवस्थामें शरीरपर्याप्त पूर्ण न बन जाये तब तब मिधयोग मामना है, बन जाने के बाद नहीं मानता । पंञ्चद्वा० १की ७वी गाथा की टीका। इस मत के अनुसार अपर्याप्त अवस्थामें जब पक्षुदर्शन होता है तब मिश्रयोग न होनेके कारण चक्षुर्दर्शन में औदारिकमिश्रकाययोगका वर्जन विरुद्ध नहीं है।
इस जगह मनःपर्याय ज्ञानमें तेरह योग माने हए हैं, जिनमें आहारक द्विकका समावेश है। पर गोम्मटमार-कर्मकाण्ड यह नहीं मानता; क्योंकि, उसमें लिखा है कि परिहारविशुद्ध चारित्र और मन:पर्यायज्ञानके समय आहारकशरीर तथा आहारका-अङ्गोपाङ्गनामकर्मका उदय नहीं होता ...कर्मकाण्ड गा० ३२४ । जब तक आहारका-द्विकका उदय ने हो, तब तक आहारकशरीर रन नहीं जा सकता और उसकी रचनाके सिवाय आहारकमिश्र और आहारक, ये दो योग अगम्भन है। इससे सिद्ध है कि पोम्मटसार मनःपर्यायज्ञानमें दो आहारकयोग महीमानता, इसी बासकी पुष्टि जीवकाण्डकी ७२८वीं गाथासे भी होती है । उमका मतलब इतना ही है कि मनःपर्यायज्ञान, परिहा रविशुद्धसंयम प्रथमोशमसम्यक्रन और आहार कद्विक, इन भावों में से किसी एफके प्राप्त होनेपर शेष भाव प्राप्त नहीं होते !
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