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कर्मरम्प भाग चार "तेग चितियं भोगणोणं दिस वरिसे मित्ति सीहरूषं मिउम्बई।"
-आवश्यक वृत्ति,प०६६८/१ । "सतो शरिपरि दुलियपूरसमित्तो हम सायनारियो दिण्णो, ततो सो कईवि विवसे वायणं दमण आयरियमुवदिती भगइमम बायणं वेतस्स नासति, मंच सण्णायघरे नाणुरहिय, अतो मम अरंतस्स नवमं पुग्वं नासिहित, ताहे आपरिया चिति-जइ ताक एयरस परमहाविस्स एवं सरंतस्स नासह अन्नस्स मिरन वेष ।"
आवश्मफवत्ति, १० ३०८ । ऐसी वस्तु-स्थिति होने पर भी स्त्रियोंको ही अध्ययनका निषेध क्यों किया गया? इस प्रपनका उत र दो तरह से विधा जा सकता है:-१) ममान मामग्री मिलने पर भी पुरुषों के मुकाबिलेमें स्त्रियोंका कम संख्यामें योग्य होना और (२) ऐतिहासिक-परिस्थति ।
(१)-जिन पश्चिमीय देशोंमें स्त्रियों को पढ़ने आदिकी सामग्री पुरुषों के समान प्राप्त होती है, वहांका इतिहास देखनेसे यही जान पड़ता है कि स्त्रियां पुरुषोंके तुल्य हो सकती हैं सही, पर योग्य व्यक्तियोंकी संस्था, स्त्री जाति की अपेक्षा पुरुष जाति में अधिक पायी जाती है।
(२)-कुदकुन्द-आचार्य सरीखे प्रतिपादक दिगम्बर-आचार्गाने स्त्री जातिको शारीरिक और मानसिक-दोषके कारण दीक्षा तकके लिये अयोग्य ठहराया।
सिंगम्मि यरपोणं, पणतरे पाहिकाखदेसम्म । मगियो सुहमो कानो, तासं कह हो पयज्मा ॥"
षट्पाहुइ-सूत्रपाहृष्ट गा० २४-२५ और वैदिक विद्वानोंने शारीरिका-शुद्धि को अग्र-स्थान देकर स्त्री और। शुद्र जातिको सामान्यतः वाध्ययन के लिये अनधिकारी यतलाया:"स्त्रीशूको नापीयरता"
इन विपक्षी सम्प्रदायोंका इतना असर पड़ा कि उससे प्रभावित होकर पुरुषजातिके समान स्त्रीजातिको योग्यता मानते हुए भी वेताम्बर-आचार्य उसे विदोष-अध्ययन के लिये अपोग्य बतलाने लगे होंगे।