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कर्मग्रन्थ भाग चार
अर्थात् चौदह रज्जु-परिमाण होता है, परन्तु उसकी मोटाई सिर्फ शरीरक बराबर होती है । दूसरे समयमें उक्त दण्डको पूर्व-पविश्वम या उत्तर दक्षिण फैलाकर उसका आकार, कपाट ( किवाड जैसा बनाया जाता है 1 तीसरे समयमें कपाटकर आत्म- प्रदेशोंको मन्याकार बनाया जाता है, अर्थात् पूर्वपश्चिम, उत्तर-दक्षिण. दोनों तरफ फैलाने से उनका बाकार रई ( मथनी ) का सा बन जाता है । चौधे समय में विदिशाओं के खाली भागोंको आरम प्रदेशोंसे पूर्ण करके उनसे सम्पूर्ण लोकको व्याप्त किया जाता है | पांचवें समय में आत्माके लोक-व्यापी प्रदेशों को सहरण क्रिया द्वारा फिर मन्याकार बनाया जाता है। छठे समय में भन्याकारसे कपाटाकार बना लिया जाता है। सातवें समय में आत्म-प्रदेश फिर दण्डरूप बनाये जाते हैं और आठवें समय में उनको असली स्थिति में - शरीरस्थ किया जाता है । (च) जैन- दृष्टिके अनुसार आत्म व्यापकता को सङ्गतिः - उपनिषद् भगवद्गीता आदि ग्रन्थोंमें आत्मा की व्यापकताका वर्णन किया है। "विश्वचसुरत विश्वतोमुलो विश्वतो बहुत विश्वतस्य ।" - श्वेताश्वतरोपनिषद् ३-३, ११-१५
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सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽभिमुखं ।
सर्वत श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥" - भगवद्गीता, १३ १३ । जैन-दष्टि के अनुसार यह वर्णन अर्थवाद है, अर्थात् आत्माकी महता व प्रशशाका सूचक है । इस अर्थवादका आधार केवलिमुद्धात के चौथे समय में आमाका लोक-व्यापी बनना हैं । यहीं बात उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने शास्त्र वार्ता समुच्चयके ३३५ वें पृष्ठपर निर्दिष्ट की है।
जैसे वेदनीय आदि कमको शीघ्र भोगने के लिये समुद्धात क्रिया मानी जाती है, वैसे ही पातञ्जल योगदर्शन में 'बहुकाय निर्माणक्रिया' मानी है, जिसको तस्वसाक्षात्कर्त्ता योगी, सोपक्रम - कर्म शीघ्र भोगने के लिये करता है। -पाद ३, सू० २२का भाष्य तथा वृत्ति; पाद ४, सूत्र ४का भाष्य तथा वृत्ति ।
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