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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट ""। पृष्ठ ६६, पंक्ति २० के 'राष्टिवाद' ग्यपर-- [स्त्रीको दृष्टिवाव नामक बारहवां अङ्क पढ़नेका निषेधहै, इसपर विचार ।]
[समानता:-व्यवहार और शास्त्र, ये दोनों, शारीरिक और अध्या. त्मिक-विकासमें स्त्रीको पुरुषके समान सिद्ध करते हैं। कुमारी ताराबाईका शरीरिक-दलमें प्रो. राममूतिसेकम न होना, विदुषी ऐनी बीसेन्टका विचार व धक्तत्व-शक्तिमेंअन्य किसी विचारक वक्ता-पुरुषसे कम न होना एवं विदुपी सरोजिनी नायडका कवित्व-शक्ति में किसी प्रसिद्ध पुरुष-कविसे कम न होना, इस बात का प्रमाण है कि समान साधन और अवसर मिलनेगर स्त्री भी पुरुष जितनी योग्यता प्राप्त कर सकती हैं । श्वेताम्बर-आचार्योने *त्रीको पुरुष के बराबर योग्य मानकर उसे कैवल्य व मोक्षकी अर्थात शारीरिक और आध्यामिक पूर्ण विकास विभाग किया है। इसके लिये देखिरी, प्रज्ञापना-सू०७, पृ० १८; नन्दी-सू० २१, पृ० १३०११ ।
इस विषयमें मत-भेद रखने वाले दिनम्बर-आचार्यों के विपयमें उन्होंने बहुत-कुछ लिखा है। इसलिये देखिये, नन्दी-टीका, पृ०१३१/१-१३३/१; प्रज्ञापना-टीका, २०-२२/१; प. शास्त्रवासिमुच्चय-टीका, पृ०४२५-४३०।
___ आलङ्कारिक पण्डित राजोखरने मध्यस्थ भावपूर्वक स्त्रीजातिको पुरुप जातिके तुल्य बतलाश है,
"पुरुषषत् योषितोऽपि कविमवेयुः । संस्कारो हात्मनि समति न स्त्रणं पौरुषं पा विभागमपेक्षते । भूपन्ने सपने ब. राजपुग्यो महामात्यदुहितरी गणिकाः कौतुकिभार्याश्च शास्त्रप्रतियुद्धाः कवयश्च ।"
-काव्यमीमांसा-अध्याय १० । विरोध:-स्त्रीको दृष्टिवादवे अध्ययनका जो निषेध किया है, इसमें दो तरहसे बिगेव आता है:-(१)तर्क-दृष्टि से और (२) शास्त्रोक्त मर्यादासे ।
(१!-एक और स्त्रीको केवलज्ञानं व मोक्ष तककी अधिकारिणो मानना और दूसरी ओर उसे दृष्टियादके अध्ययन केलिमे-श्रुतज्ञान-विदोषके लियेअयोग्य बतलाना, ऐसा विरुद्ध जान पड़ता है, जैसे किसी को रत्न सौंपकर कहना कि तुम कौड़ी की रक्षा नहीं कर सकते।