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कर्मग्रन्थ भाग चार शरीर-योग्य लोमाहार गहण किमानाता है और सारे समय में नवीन शरीरयोग्य आहार। दो विग्रहवाली गति, जो तीन समय की है और तीन घिग्रहवाली गति. जो चार समय की है, उसमें प्रथम तथा अन्तिम समय में आहारकत्व होने पर भी बीच के समय में अनाहारक-अवस्था पाची जाती है। अर्थात् नि-विग्रहगति के मध्य में एक समय तक और वि-विग्रह गति में प्रथम तथा अन्तिम समय को छोड़, बीच के दो समय पर्यन्त अनाहारक स्थिति रहती है । व्यवहारनय का यह मत कि विग्रह की अपेक्षा अनाहारकस्य का समर एक कम ही होता है, तत्त्वार्ष-अध्याय २ के ३१वें सूत्र में तथा उसके भाष्य और टीका में निर्दिष्ट है। साथ ही टीका में ध्यबहारनय के अनुसार उपयूक्त पांच समय-परिमाण पतविग्रहवति गति के मतान्तर को लेकर तीन समय का अनाहारकस्व मी बतलाया गया है । सारांश, म्यवहारनय की अपेक्षा से तीन समय का अनाहारकत्व, चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर से ही घट मकता है, अन्यथा नहीं । निश्चयष्टि के अनुसार यह बात नहीं है। उसके अनुसार तो जितने विग्रह उतने ही समय अनाहारकत्व के होते हैं । अत एव उस दृष्टि के अनुसार एक विग्रहवाली वक्रगति में एक समय, दो विग्रहवाली गति में दो समय और तीन विग्रहवाली गति में तीन समय अनाहारकत्व के समझने चाहिये । यह बात दिगम्बर-प्रमिस तत्वार्थ-अ० २ के ३० सूत्र तथा उसकी सर्वाथसिद्धि और राजवासिक-ट्रीका में है।
श्वेताम्बर-ग्रन्थों में चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर का उल्लेख है, उसको लेकर निवस्यष्टि से विचार किया जाय तो अनाहारकत्व के चार समय भी कहे जा सकते हैं।
सारांश, श्वेताम्बरीब सस्वार्थ-माष्य आदि में एक या दो समय के अनाहारकत्व का जो उल्लेख है, वह व्यवहारष्टि से और दिगम्बरीय तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में जो एक, दो या तीन समय के अनाहारकत्व का उल्लेन है, वह निश्चयष्टि से । अत एव अनाहारकत्व के काल-मान के विषय में दोनों सम्प्रदाय में वास्तविक विरोष को अवकाश ही नहीं है।
प्रसङ्ग-बा. यह बात जानने योग्य है कि पूर्व-शरीर का परित्याग, पर-मवकी आय का उदय और गति (चाहे मज हो या बक्री, ये सीनों एक समय में होते हैं । विग्रहगति के दूसरे समय में पर-भव की बायु के सदय का कथन है, सो स्थल व्यवहारनय की अपेक्षा से-पूर्व-मव का
अन्तिम समय, जिसमें जीव विग्रहगति का अभिमुख हो जाता है. उसको • उपचार से विग्रहगति का प्रथम समय मानकर-समझना चाहिये ।
-बृहत्संग्रहणा, गा० ३२५, मलयगिरि-टीका ।