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कर्मग्रन्थ माग चार टीका में भी है। किन्तु इस मतान्सर का जहाँ-कहीं उल्लेख है, वहाँ सब जगह यही लिखा है कि चतुविग्रहगति का निर्देश किसी मूल सूत्र में नहीं है। इससे जान पड़ता है कि ऐसी गति करने वाले जीव हो बहुत कम हैं। उक्त सूत्रों के माध्य में तो यह स्पष्ट लिखा है कि त्रि-विग्रह वाली गति का संभव ही नहीं है ।
"अविग्रहा एकfouहा द्विविप्रा विविग्रहा इत्येताश्चतुस्समयपविधागतयो भवन्ति परतो म सम्भवन्ति
भाष्य के इस कथन से तथा दिगम्बर-ग्रन्थों में अधिक से अधिक त्रि-विग्रह गति का ही निर्देश पाये जाने से और भगवती-टी आदि में जहाँ कहीं चतुविग्रहमति का मतान्तर है, वहीं सब जगह उमको अस्ता दिखायी जाने के कारण अधिक से अधिक तीन विग्रहबाली गतिही वा पक्ष बहुमान्य समझना चाहिये ।
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(२) वक्र गति के काल-परिमाण के सम्बन्ध में यह नियम है किव क्रगति का समय वह कीअपेक्षा एक अधिक ही होता है । अर्थात् जिस गति में एक विग्रह हो, उसका काल-मान दो समय का, इस प्रकार दिविप्र गति का काल-मान तीन समयों का और त्रि-विग्रहगति का कालमान बार समयों का है। इस नियम में श्वेताम्बर दिगम्बर का कोई मत भेव नहीं 1 हाँ, ऊपर चतुविग्रहगति के मतान्तर का जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार उस गति का काल यान पांच गमयों का बतलाया गया है । (३) विग्रहगति में अनाहारकत्व के बाल-मान का विचार व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से किया हुआ पाया जाता है । व्यवहारवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व शरीर छोड़ने का समय, जो वक्रगति का प्रथम समय है, उसमें पूर्व शरीर- योग्य कुछ पुद्गल लामाहारद्वारा ग्रहण किये जाते हैं । बृहत्संग्रहणी गा० ३२६ तथा उसकी टीका; लोकल सगं ३. श्लोक, ११०७ से आगे । परन्तु निश्चयवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व-शरीर छूटने के समय में अर्थात् वक्र-गति के प्रथम समय में न तो पूर्व-शरीर का ही सम्बन्ध है और न नया शरीर बना हैं; इसलिये उस समय किसी प्रकार के आहार का संभव नहीं । लोक० स० ३,लोक १११५ से आगे । व्यवहारवादी हो या निश्चयवादी. दोनों इस बात को बराबर मानते हैं कि वक्रगति का अन्तिम समय, जिसमें जीव नवीन स्थान में उत्पन्न होता है। उसमें अवश्य आहार ग्रहण होता है । व्यवहारनय के अनुसार अनाहारकत्व का काल मान इस प्रकार समझना चाहिये:
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एक विग्रहवाली गति, जिसको काल मर्यादा दो समय की है, उसके दोनों समय में जीव आहारक ही होता है; क्योंकि पहले समय में पूर्व