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कर्मग्रन्थ भाग्य चार यह कथन प्रमाण है । सारांश, इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले उपयोगात्मक अचक्षुर्दर्शन मान कर समाधान किया जा सकता है ।
(२) विग्रहमति में और इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले अचक्षुदर्शन माना जाता है, सो शक्तिरूप अर्थात् क्षयोपशमरूप, उपयोगरूप नहीं। यह समाधान, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ४६वीं गाया की टीका के
"त्रयाणामप्यचक्षुर्वर्शनं तस्यानाहारकावस्यायामपि लब्धिमाधिस्याभ्युपगमात् ।"
इसउल्लेख के आधार पर दिया गया है।
प्रश्न--इन्द्रिय पर्यापित पूर्ण होने के पहले जैसे उपयोगरूप या क्षयोपशमरूप अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, वैसे ही चक्षुर्देर्शन क्यों नहीं माना जाता?
उत्तर चक्षुर्दर्शन, नेत्ररूप विशेष इन्द्रिय-जन्य दर्शन को कहते हैं । ऐसा दर्शन उसी समय माना जाता है, जब कि द्रव्यनेत्र हो । अत एव चक्ष-दर्शन को इन्द्रियाप्ति पूर्ण होने के बाद ही माना है । अचक्षदर्शन किसी-एक इन्द्रिय-जन्य सामान्य उपयोग को नहीं कहते; किन्तु नेत्र भिन्न किसी द्रव्येन्द्रिय से होने वाले, द्रव्यमन से होने वाले या द्रव्येन्द्रिय तथा द्रव्यमन + अभाव में क्षयोपशममात्र से होने वाले सामान्य उपयोग को कहते हैं । इसी से अचक्षुर्दान को इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले और पीछे, दोनों अवस्थाओं में भाना है।
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