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अन्य मार
परिशिष्ट "ट'। पृष्ठ ७४, पक्ति २१ के "सम्भव' शबएर
अठारह मार्गणा में अचक्षुदर्शन परिगणित है। अतएव उसमें भी पौदह जीवस्थान समलने चाहिये । परन्तु इस पर प्रश्न यह होता है कि अचक्षुर्दर्शन में जो अपर्याप्त जीवस्थान माने जाते हैं. सो क्या अपर्याप्तअवस्था में इन्द्रियपर्माप्ति पूर्ण होने के बात अचक्षुर्दर्शन मान कर या इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहल भी अचक्षुर्दर्शन होता है। यह मान कर ?
यदि प्रथम पक्ष माना जाय तब तो ठीक है। क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त-अवस्था में ही चतुरिन्द्रियद्वारा सामान्य बोध मान करना जैसे:- वक्षुर्दर्शन में तीन अपर्याप्त जीवस्थान १७वीं गाथा में मसान्तर से बतलाये हुये है वैसे ही इन्द्रियपर्यास्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्तअवस्था में चक्षुभिन्न इन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर अचक्षुर्दर्शन में सात अपर्याप्त जीवस्थान घटाये जा सकते हैं।
परन्तु श्रीजय सोमसूरि ने इस गाथा के अपने टब में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन मान कर उसमें अपर्याप्त जीवस्थान माने हैं । और सिद्धान्त को आधार से बतलाया है कि विग्रहगति और कार्मणोग में अधिदर्शन रहित जीव को अचक्षुर्दशन होता है। इस पक्ष प्रश्न यह होता है कि इंन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले द्रव्येन्द्रिय न होने से अचक्षुदर्शन कैसे मानना ? इसका उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है।
(१। द्रव्येन्द्रिय होने पर द्रव्य और भाव, उभय इन्द्रिय-जन्य उपयोग और द्रव्येन्द्रिय के अभाव में केवल' मावेन्द्रिय-जन्य उपयोग, इस तरह दो प्रकार का उपयोग है । विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति होने के पहले, पहले प्रकार का उपयोग, नहीं हो सकता; पर दूसरे प्रकार का दर्शनात्मक सामान्य उपयोग माना जा सकता है। ऐसा मानने में तत्त्वार्थ-अल २, सू० ६ की वृत्तिका
"अपवेन्द्रियनिरपेक्षमेव तस्कस्यचिद्भवेद् यतः पृष्ठत उपसर्पन्तं स सुद्धपैवेन्द्रियव्यापारनिरपेक्ष पव्यक्तीति ।"