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कर्मग्रन्थ भाग चार
वैसे घातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय, जैसे विपाकोदय होता है। इन अठारह सर्वघातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय नहीं होता, अर्थात् इन अठारह प्रकृतियों का क्षयोपशम, तभी सम्भव है, जब उनका प्रदेशोदय ही हो। इसलिये यह सिद्धान्तमाना है कि वपाकांदयवती प्रकृतियों का क्षयोपशम यदि होता है तो देशघातिनी ही का सर्वघातिनी का नहीं ।
अत एव उक्त अठारह प्रकृतियाँ, विपाकोदय के निरोध के योग्य मानी जाती हैं; क्योंकि उनके आवार्य गुणों का क्षायोपशमिक स्वरुप में व्यक्त होना माना गया है, जो विपाकोदय केनिरोध के सिवाय षट नहीं सकता।
(२) उपशमः - क्षयोपशम की व्याख्या में उपशस शब्द का जो अर्थ किया गया है, उससे औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ कुछ उदार है। अर्थात् क्षयोपशम के उपशम शब्द का अर्थ सिर्फ विपाकादयसम्बन्धिनी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन होना है, पर औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों का अभाव है; क्योंकि क्षयोपशम में कर्म का क्षय भी जारी रहता है, जो कम से कम प्रदेशोदय के सिवाय हो ही नहीं सकता । परन्तु उपवास में यह बात नहीं, जब कर्म का उपशम होता है, तभी से उसका क्षय रुक हो जाता है, अतएव उसके प्रदेशोदय होने की आवश्यकता ही नहीं रहती । इसी से उपशम अवस्था तभी मानी जाती है, जब कि अन्तरकरण के अन्तर्मुहूर्त "में उदय पाने के योग्य दलिकों को कुछ तो पहले ही भोग लिये जाते हैं और कुछ बलिक पीछे उदय पाने योग्य बना दिये जाते हैं, अर्थात् अन्तरकरण में वेद्य- दक्षिकों का अभाव होता है ।
अतएव क्षयोपशम और उपशम की संक्षिप्त व्याख्या इतनी ही की जाती है कि क्षयोपशम केनमय विपाकोदय या मन्द विपाकोदय होता है, पर उपशम के समय वह भी नहीं होता । यह नियम याद रखना चाहिये कि उपशम भी घाति का ही हो सकता है, सो भी सब धातिकर्म का नहीं किन्तु केवल मोहनीय कर्म का अर्थात् प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार का उदय, यदि रोका जा सकता है तो मोहनीय कर्म का ही । इसके लिये श्रीयशोविजयजी कृत देखिये, नन्दी, सू० की टीका, पृ० ७७ कम्मपयडी, टीका, पृ० १३ पञ्च द्वा० १, गा० २९ को मलयगिरि व्याख्या सम्यक्त्व के स्वरूप, उत्पत्ति और भेद-प्रभेदादि का सविस्तार विचार देखने के लिये देखिये, लोक प्र०-सर्ग ३, श्लोक ५६६-७००।