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कर्मग्रन्थ-माग चार करता । अब रहा मिथ्यात्व का प्रदेशोदय, सो वह भी, सम्यक्त्व-परिणाम का प्रतिबन्धक नहीं होता; क्योंकि नीरस दलिकों का ही प्रदेशोदय होता है । जी दलिक, मन्द रसयाले हैं, उनका विषाकोदय भी, जब गुण का घात नहीं करता, तब नीरस दलिकों के प्रदेशोदय से गुण के धात होने की सम्भावना ही नहीं की जा सकती । देखिये, पञ्चसंग्रह-द्वार १, १५ गाथा की टीका में ग्यारहवें गुणस्थान की व्याख्या।
(५)-क्षयोपशम-जन्य पर्याय 'शायोपशामिक' और उपशम-जन्य पर्याय 'औपशमिक' कहलाता है। इसलिये किसी भी बायोपशिक और औपशामिक भाव का यथार्थ ज्ञान करने के लिये पहले क्षयोपशम और उपशमका ही स्वरूप जान लेना आवश्यक है । अतः इसका स्वरूप शास्त्रीय प्रक्रिया के अनुसार लिखा जाता है; ...
jोप में दो .....मामा म । 'क्षयोपशम' शब्द का मतलब, कर्म के क्षय और उपशम दोनों से है । क्षय का मतन्नय आत्मा से कर्म का विशिष्ट सम्बन्ध छट जाना और उपशम का मतलब कर्म का अपने स्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न रह कर भी उसपर असर न डालना है । यह तो हुआ सामान्य अर्थ; पर उसका पारिभाषिक अर्थ कुछ अधिक है । बन्धावलिका पुर्ण हो जाने पर किसी विवक्षित कर्म का जब भयोपशम शुरू होता है, तब विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका पर्यन्त के दलिक, जिन्हें उदयात्रलिका-प्राप्त या उदीर्ण-दलिक वाहते है, उनका तो प्रदेशोथम व विपाकोक्यद्वारा क्षय (अभाव) होता रहता है। और जो दलिक, विवक्षित वर्तमान समय से आपलिका तक में उदय पाने योग्य नहीं हैं जिन्हें उपयवलिका बहित या अनुदीर्ण दलिक कहते हैंउनका उपशम (विषाकोदय की योग्यता का अभाव या तीन रससे मन्द रस में परिणमन) हो जाता है, जिससे ये दलिक, अपनी उदयावलिका प्राप्त होने पर, प्रदेशोदय या मन्द विपाकोदपट्टारा क्षीण हो जाते हैं अर्थाद आत्मापर अपना फल प्रवट नहीं कर सकते या कम प्रकट करते हैं। ___ इस प्रकार आवलि' का पर्यन्त के उदय-प्राप्त कर्मदनिकों का प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय और आवलिफा के बाद के उदय पाने योग्य कर्मदलको की विपाकोदयसम्बघिनी योग्यता का अभाव या तीन रस का मन्द रस में परिण मन होते रहने से कम का क्षयोपशम कहलाता है।
क्षयोपशम-योग्य कर्म:-अयोपशम, सब कमों का नहीं होता; सिर्फ घातिकर्मों का होता है। घातिकर्म के देशवाति और सर्वघाति, में दो भेद है। दोनों के क्षयोपशम में कुछ विभिन्नता है।
(क) जब देशवासिकम का क्षयोपशम प्रवृत्त होता है, तब उसके