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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट "झ" ।
पृष्ठ ६५, पक्ति ८ के 'सम्यक्त्व' शव्दपर
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उसका स्वरूप, विशेष प्रकार से जानने के लिये निम्नलिखित कुछ बातों का विचार करना बहुत उपयोगी है :
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(१) सभ्यक्तय सहेतुक है या निर्हेतुक? (२) श्रामिक आदि भेदों का आधार क्या है ?
(३) औपशमिक और श्रयोपशमिक सम्यक् का आपस में अभ्यर तथा क्षायिक सभ्यता की विशेषता ।
(५)
(४) मा समाधान, विपादय और प्रदेशोदय का स्वरूप | और उपयमकी व्याख्या तथा खुलासाधार विचार | (१) - सम्यक परिणामक है या निर्हेतुक? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसको निर्हेतुक नहीं मान सकते; क्योंकि जो वस्तु निहतुक हो, वह सब काल में, सब जगह एक सी होनी चाहिये अथवा उसका अभाव होना चाहिये । सम्यक्तव-परिणाम, न वो सबमे समान है और न उसका अभाव है। इलिये उसे सहेतुक ही मानना चाहिये। सहेतुक मान लेने पर वह प्रश्न होता है कि उसका नियत हेतु क्या है; प्रवचन श्रवण, भगवत्पूजन आदि जो-जो बाह्य निमित्त माने जाते है. ये तो सम्यक्त्व के नियम हो ही नहीं सकते क्योंकि इन बाह्य निमित्तों के होते हुए भी. अभ क्यों की तरह अनेक मध्यों को सम्यक्तव परिणाम प्रकट होने में नियत कारण जीवका तथाविध भव्यत्व-नामक अनादि परिणाभिक स्वभाव विशेष ही है | जब इस परिणामिक मध्यत्व का परिपाक होता है, तमी सभ्यक्तवलाभ होता है। भव्यत्व परिणाम साध्य रोग के समान है। कोई साध्य रोग, स्वयमेव (बाह्य उपाय के बिना ही शान्त हो जाता है। किसी माध्य रोग के शान्त होने में बंध का उपचार भी दरकार है और कोई साध्य रोग ऐसा भी होता है, जो बहुत दिनों के बाद मिटता है। भव्यत्व-स्वभाव ऐसा ही है ! अनेक जीवों का मध्यत्व, वाय निमित्त के बिना ही पाक प्राप्त करता है । ऐसे भी जीव हैं, जिनके भव्यत्व स्वभाव का परिपाक होने में शास्त्र श्रवण जादि बाह्य निमित्तों की आवश्यकता पड़ती है। और अनेक जीवों का भव्यत्व गरिणाम दीर्घ काल व्यतीत हो चुकने पर स्वयं ही परिपाक प्राप्त करता है। शास्त्र श्रमण, अर्हत्पूजन आदि जो बाह्य निमित्त है, वे सहकारी मात्र है। उनके द्वारा कभी-कभी मध्यत्व का परिपाक होने में मदद मिलती है, इसी से व्यवहार में वे सभ्यक्तव के कारण माने गये है और उनके आलम्बन की आवश्यकता दिखायी जाती है। परन्तु निश्चयदृष्टि से तथाविध-भव्यत्व के विपाक ही सम्यवा
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