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कर्मग्रन्थ भाग चार
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है और इन योगों के आलम्बनभूत मनोद्रव्य तथा भाषाद्रव्य का ग्रहण भी किसी न किसी प्रकार के शारीरिक-योग से ही होता है ।
"इसका समाधान यही है कि मनोयोग तथा वचनयोग, काययोग से जुदा नहीं है; किन्तु काययोग-विशेष ही है। जो काययोग मनन करने में सहायक होता है, बड़ी उस समय मनोयोग और जो काययोग, भाषा के बोलने में महकारी होता है, वही उस समय 'बच्चन्योग' माना गया है। सारांश यह है कि व्यवहार के लिये ही काययोग के तीन भेद किये हैं ।
(ख) यह भी शङ्का होती है कि उक्त रीति से श्वासोश्वास में सहायक होने वाले काययोगको 'श्वासोच्छ्वासयोग' कहना चाहिये और तीन की जगह चार योग मानने चाहिये ।
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इसका समाधान यह दिया गया है कि व्यवहार में जैसा भाषा का और मन का विशिष्ट प्रयोजन दीखता है, वैसा दवासोच्छ्वास और शरीर का प्रयोजन वैसा मन नहीं है, जैसा शरीर और मन वखन का इसी से तीन ही योग माने गये हैं ? इस विषय के विशेष विचार के लिये विशेषावश्यक भाष्य ०३५६- ३६४ तथा लोकप्रराश-सर्ग ३, श्लो० १३५४१३५५ के बीन का गद्य देखना चाहिये ।
द्रव्यमन, द्रव्यवचन और शरीर का स्वरूप:
(क) जो पुद्ग्ल मन बनने के योग्य हैं, जिनकी शास्त्र में मनोवगंणा' कहते हैं वे जब मनरूप में परिणत हो जाते हैं - विचार करने में सहायक हो सकें, ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं सब उन्हें 'मन' कहते हैं । शरीर में द्रव्यमन के रहने का कोई खास स्थान तथा उसका नियत आकार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में नहीं है । स्वेताम्बर - सम्प्रदाय के अनुसार द्रव्यमन को शरीर व्यापी और शरीराकार समझना चाहिये । दिगम्बरसम्प्रदाय में उसका स्थान "हृदय तथा आकार कमल कासा माना है। (ख) वचन रूप में परिणत एक प्रकार के पुद्गल, जिन्हें भाषावर्गणा कहते हैं, वे ही 'वचन' कहलाते हैं ।
(ग) जिससे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि हो सकता है, जो सुख-दुःख भोगने का स्थान है और जो औदारिक, वैक्रिय आदि वर्गणाओ से बनता है, वह 'शरीर' कहलाता है ।
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