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कर्मग्रन्य भाग चार
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अव्यभिचारी (निश्चिन । कारण मानना चाहिये । इससे यास्त्रि-श्रवण, प्रतिमा-पूजन आदि बाह्य क्रियाओं की अनेकान्तिकता, जो अधिकारी भेद पर अवलम्बित है. उसका खुलासा हो जाता है । यही भाष, भगवान उमाम्वाति ने 'तनिसर्गादधिगमाद्धा' - तस्यार्थ-अ० १, सूत्र ३ से प्रकट लिया है और यही बात पश्चगह-द्वार १,गा. को मलयगिरि टीकामें भी है।
(2)- सम्यक्त्व गृण, प्रकट होने के आभ्यान्तर कारणों की जो विविधता है, कही क्षायोपमिक आदि भेदों का आधार है:-अनन्तानुबन्धि चतुष्क और दर्शनमोहनीय-त्रिका, इन सात प्रकृतियों का क्षयोपशम, क्षायोपश मिकमम्यवसा; उपम, औपशभिवसम्यक्त्या और क्षय, क्षायिकसम्यक्त्वका कारण है। तथा सम्यक्रन से गिरा कर मिथ्यात्व की ओर झुकानेवाला अनन्तानुबन्धी कपाय का उदग, सासादनसम्यक्रवका कारण और मिश्रमोहनीय का उदय, मिश्रसम्यल्पका कारण है । औपणमिकसम्यक्त्व में काललब्धि आदि अन्य क्या-२ निमित्त अपेक्षित हैं और वह किस-२ गति में निन-२ पापों से होता है, इसका विशेष वर्णन तथा क्षायिक और क्षायो-पशमिव सम्यक्त्वका वर्णन क्रमश:-तत्त्वार्थअ०२, मू०३के १ और २रे राजत्तिक में तथा सु० ८ और ५ के ये राजवतिक में है।
(E)- औपशमिकमम्यक्त के समय, दर्शनमोहनीय का किसी प्रकार का उदय नहीं होता; पर आयोयमिकमम्यक्त्व के समय, सम्यक्त्व मोहनीयका विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय का प्रदेशोदय होता है । इसी भिन्नता के कारण शास्त्र में औपगमिकसम्यकार को, 'भावसम्यक्त्त' और मायोपशामिन सम्यक्रनको, 'प्रत्र्यसम्यक्त्व' कहा है । इन दोनों सम्यक्त्वों से क्षायिकसम्यक्त्व विशिष्ट है क्योंकि वह स्थायी है और ये दोनों अस्थायी हैं।
(४-अह शङ्का होती है कि मोहनीयकर्म वातिकम है । वह सम्यक्त्व और चारित्रपर्याय का घात करता है, इसलिये सम्यक्त्वमोहनीय के विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय के प्रदेशोदय के समम, सम्पनत्य-परिणाम व्यक्त कैसे हो सकता है। इसका समाधान यह है कि राम्यवत्वमोहनीय, मोहनीयकर्म है सही, पर उसके दलिक निशुद्ध होते हैं, क्योंकि शुद्ध अध्यवसाय से जब मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दलिकों का सर्वघाती रस नष्ट हो जाता है, तब वे ही एक थान रसवाले और द्विस्थान अतिमय रसवाले दलिफ 'सम्यक्त्वमोहनीय' कहलाते हैं । जैसे:-फांच आदि पारदर्शक वस्तुएँ नेत्र दर्शन-कार्य में रुकावट नहीं सतीं, वैसे ही मिथ्यात्वमोहनीय के शुद्ध पलिकों का पिाकोदय सम्यक्त्व-परिणाम के आविर्भाव में प्रतिबन्ध नहीं