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कर्मग्रन्थ भाग चार
जीव, बैंक्रिपलब्धि-संपन्न होते हैं, वे ही वैक्रिय-द्विक के अधिकारी हैं, सब नहीं । वैक्रियशरीर बनाते समय, बैंक्रियमिश्रकाययोग और बना चुकने के बाद उसे धारण करते समय बैंक्रियकापयोग होता है।
असंजी में छह योग कहे गये हैं। इनमें से पांच योग तो वायुफायको अपेक्षा से; क्योंकि सभी एकेन्द्रिय असंज्ञो हो हैं । छठा असत्यामृषावरनययोग, द्वीन्द्रिय आदिको अपेक्षा से; क्योंकि वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और समूच्छिमपञ्चेन्द्रिय, ये सभी असंही हैं। बोन्द्रिय आदि भसंज्ञी जीव, भाषालब्धि-युक्त होते हैं। इसलिये उनमें असत्यामृषावचनयोग होता है।
विकलेन्द्रिय में चार योग कहे गये हैं। क्योंकि वे, वैक्रिय सन्धिसंपन्न न होने के कारण वंनियशरीर नहीं बना सकते । इसलिये उनमें असं नयी छह योगों में से किन-कि नहीं होता ॥२७।।
कम्मुरलमीसविणु मण, वइसमहयद्देयचक्षुमणनाणे । उरलदुगकम्म पढम,-तिममणवइ केवलदुर्गमि ॥२८ ।।
कमौदारि कमिश्रं विना मनोवचरसामायिक महेंदचक्षुमनोज्ञाने ।
औदारिकति कर्मपयमान्तिममनोवचः कवलविके ।। २ ।। अर्थ--मनोयोग, वचनयोग, सामायिकचारित्र, छेवोपस्थापमीयचारित्र, चक्षुर्वर्शन और मन:पर्याय ज्ञान, इन छह मागंगाओं में
"निहं ताव रासीणं, वेनियललो घेध नरिप । वापरपज्जताण पि, संखेज्जइ भागस्स ति।"
--पक्व संग्रह-द्वार १ की टीका में प्रमाण रूप से उद्धृत । अर्थात्-"अपर्याप्त तथा पर्याप्त मूक्ष्म और अपर्याप्त वादर' इन तीन प्रकार के वायुकायिकों में तो वैक्रिपलब्धि है ही नहीं । पर्याप्त बादर वायुकाय में है, परन्तु वह सबमें नहीं; सिर्फ उसके संख्यातवें भाग में ही है।"