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कर्मग्रन्थ भाग चार
कम्मुरलदुर्ग थावरि, ते सविउविदुग पंच इगि 'रवणे । छ असंनि चरमवाइजुय, ते विउवगुण चल विगले ॥२७॥
कार्मणौतारिकनिक स्थावरे, ते सक्रिय द्रिका: पञ्चकस्मिन् पवने । पडसज्जिनि चरमवचोयुतास्ते बैंक्रियतिकोनाश्चत्वारो विकले ॥२७॥ ___ मर्थ-स्थावरकाम में, फार्मण तथा औदारिक-विक, ये तीन योग होते हैं। एकेन्द्रिय जाति और वायुफाप में उक्त तीन तथा बैकिय-विक, पे कुल पांच योग होते हैं । असंज्ञो में उक्त पांच और चरम बचनयोग (असस्यामृषानचन) फुल छह योग होते हैं । विकलेन्द्रिय में उक्त छहमें से बैंक्रिय-द्विक को घटाकर शेष चार (फार्मण, औचारिकमिश्र, औवारिफ और असत्यामृषावचन) योग होते हैं ॥ २७ ॥
भावार्य-स्थावरकाय में तीन योग कहे गये हैं, सो वायुकाय के सिवाय अन्य चार प्रकार के स्थावरों में समझना चाहिये । क्योंकि वायुकाय में और भी दो योगों का संभव है । तीन योगों में से कामणकाययोग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति-समय में, औवारिकमिभकाययोग, उत्पत्ति-समय को छोड़कर शेष अपर्याप्त-काल में और आवारिककाययोग, पर्याप्त-अवस्था में समझना चाहिये।
एकेन्द्रियजाति में, वायुकाय के जोच भी आ जाते है । इसलिये उसमें तीन योगों के अतिरिक्त, वो बैक्रिययोग मानकर पांच योग कहे हैं।
वायुकाय में अन्य स्थानों की तरह कार्मण आदि तीन योग पापे जाते हैं। पर इनके सिवाय और भी दो योग (वैक्रिय और बनियमिश्र) होते हैं। इसी से उसमें पांच योग माने गये हैं। वायुकाय' में पर्याप्त पावर
१-वही बात प्रज्ञापना-णि में कही हुई:--