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कर्मग्रन्थ भाग चार
काल से ये असंख्यात
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नारक भी असंख्यात हैं, परन्तु नारकों की असंख्यात संख्या मनुष्यों की असंख्यात संख्या से असंख्यातगुनी अधिक है। नारकों को संख्या को शास्त्र में इस प्रकार बतलाया है: अवसर्पिणी और उत्सपिणों के समयों के मुख्य हैं। तथा क्षेत्र से सात रज्जु -प्रभाण घनीकृत लोक के अल मात्र प्रतर क्षेत्र में जितनी सूचि श्रेणियाँ होती हैं, उनके द्वितीय वर्गमूल को उन्हीं के प्रथम वर्गमूल के साथ गुणने पर जो गुणनफल हो उतनी सूचि श्रेणियों के प्रदेशों की संख्या और नारकों की संख्या बराबर होती है । इसकी कल्पना से इस प्रकार समझ सकते हैं । कल्पना कीजिये कि अङ्ग लमात्र प्रतर-क्षेत्र में २५६ सृष्टि श्रेणिय
हैं। इनका प्रथम वर्गमूल १६ हुआ और दूसरा ४ गुणने से ६४ हो । है । ये ६४ सूचि श्रेणिय श्रेणी के ३२००००० प्रदेशों के हिसाब से, ६४ २०४६००००० प्रवेश हुए, इतने ही नारक हैं ।
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१६ की ४ के साथ हुई। प्रत्येक सूचि अत्रि-श्रेणियों के
भवनपति देव असंख्यात हैं। इनमें से असुर कुमार का संख्या इस प्रकार बतलायी गयी है:- अङ्ग मात्र आकाश क्षेत्र के जिलने प्रदेश हैं, उनके प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश आ सकते हैं, उतनी सूचि श्रेणियों के प्रवेशों के बराबर असुरकुमार की संख्या होती है । इसी प्रकार नागकुमार आदि अन्य सब भवनंपति देवों की भी संख्या समझ लेनी चाहिये ।
इस संख्या को समझने के लिये कल्पना कीजिये कि मङ्गलमात्र आकाश क्षेत्र में २५६ प्रवेश हैं । उनका प्रथम वर्गमूल होगा १६
१ - गोम्मटसार में दो हुई नारकों की संख्या, इस संख्या से नहीं मिलती। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की १५२वीं गाथा |
२ -- गोम्मटसार में प्रत्येक निकाय को जुदा-जुदा संख्या न देकर सब भवनपतियों की संख्या एक साथ दिखायी है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की १६०वीं गाथा |