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कर्मग्रन्थ भाग चार
इन्द्रिय और कायमार्गणा का अल्प-बहुत्व:
पणचतिदएगिदि. थोवा तिन्नि अहिया अणंत गुणा । तस थोष असंखग्गो, भूजलनिल अहिय वर्ण णंता ॥३८॥ पञ्चचतुस्त्रिद्वयकान्द्रयाः, तांकास्मयोऽधका गुणाः । प्रसाःस्तोका असंख्या, अग्नयो भूजलानिला अधिना बना अनन्ता:।।३७ ।
अर्थ-पञ्चेनिमय जीव सबसे थोडे हैं । पञ्चेन्द्रियों से चतुरिन्द्रिय, पतुरिन्द्रयों से श्रीन्द्रिय और श्रीन्द्रियों से द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । द्वीन्द्रियों से एकेन्द्रिय जोब अमन्तगुण हैं। .
सकायिक जीव अन्य सच काय के जीवों से शोड़े हैं । इनसे अग्मिकायिक जीव असनयात गुण हैं । अग्निकायिकों से पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिकों से जलकायिक और जालकायकों से वायुकायिक विशेषाधिक हैं । धापुकायिकों से बनस्पतिकायिक अनन्तगण हैं ।।३।।
भावार्थ-असहपात कोटाकोटी योजन-प्रमाण सूचि-श्रेणी के जितने प्रदेश हैं, घनीकृत लोक को उतनी सूचि-णि घों के प्रबेशों के बराबर दोन्द्रिय जीव आगम में कहे गये हैं। श्रीन्द्रिय, चतुरिप्रिय और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च द्वीन्दिय के बराबर हो कहे गये हैं ।
१--यह अल्प-बहुल्व प्रज्ञापना में पृ. १२० --१३ तक है । गोम्मटसार की इन्द्रियमाणा में द्वीन्द्रिय स पश्चेन्द्रिय पर्यन्त का विशेषाधिकत्व यहाँ के समान वर्णित है ।
--जीवन गा० १५३--७८ । कायमार्गणा में तेजःकायिकआदि का भी विदोषाधिकत्व यहाँ के समान है ।
__ -- जीव गा० २०३ से आगे । २--एक संस्या अन्य संख्या से बड़ी होकार भी जब तक दूनी न हो; सब तक वह उसे 'विशेष्यधिक' कही जाती है । यथा ४ या की संस्था ३ से विशेषाधिक है, पर ६ की संख्या ३ से दूनी है, विशेषाधिक नहीं।