Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
जीवों में होती है। क्योंकि नीललेश्या कापोत की अपेक्षा क्लिष्टतर अध्यसायरूप और कृष्णलेइया नीललेदया से क्लिष्टतम अध्यवसाय रूप है । ए ता है कि लियऔर परिणाम वाले जीवों की संख्या उत्तरोत्तर अधिकाधिक ही होती है।
मध्य जोव, अभव्य जीवों की जीव 'जघन्ययुक्त' नामक चौयो जीव अनन्तानन्त हैं ।
अपेक्षा अनन्तगुण है; क्योंकि अमध्यअनन्तसंख्या प्रमाण हैं, पर अश्य
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औपशमिकसम्यक्य को स्थान कर जो जीव मिध्यात्व की ओर झुकते हैं, उन्हीं को सासारमसम्यक्तव होता है, दूसरों को नहीं । इसी से अन्य सब दृष्टिवालों से सासावन सम्यम्टष्टिवश्ले कम ही पाये जाते हैं। जितने जीवों को मपशमिकसम्यक्तव प्राप्त होता है, वे सभी उस सम्यक्तव को वमन कर मिध्यात्व के अभिमुख नहीं होते, किन्तु कुछ ही होते हैं; इसी से औपशमिकसम्यम से गिरने वालों की अपेक्षा उसमें स्थिर रहने वाले संस्थागण पाये जाते हैं ॥ ४३ ॥
मीसा संखा वेग, अस खगुण खइयमिच्छबु अनंता । सनियर थोव नंता - णहार थोवेयर असंखा
४४ ॥
मिश्राः सख्या वेदका, असंख्यगुणाः क्षायिकमिध्य द्वावनन्त । संज्ञीतरे स्वोकानन्ता, अनाहारकाः स्तोका इतरेऽसंस्थाः ।। ४४ ।। ओपशमिकसम्यष्टिवालों से संस्थात
अर्थ - मिरष्टिवलं,
जोब
गुण हैं। वेवक (क्षावापशमिक ) सम्यग्दष्टिवाले जीव, मिअरध्दिवालों से असंख्यातगुण हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टिवाले वालों से अनम्यगुण हैं। मिध्यादृष्टिवाले वाले जीवों से भरे अनन्तगण हैं ।
वेदकसम्यग्दृष्टिजीव, क्षायिक सम्यग्दष्टि
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