Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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इसलिये यह शङ्का होती है कि जब आगम में द्वीन्द्रिय आवि जीवों की संख्या समान करे हुई है तब पचेन्द्रिय आणि जीवों का उपर्युक्त अल्प- बहुत्व कैसे घट सकता है ? · इसका समाधान यह है कि असंख्यात सङ्ख्या के असङ्खयात प्रकार है। इसलिये असंख्यात कोटाकोटी योजन- प्रमाण सूवि श्र ेणी' शब्द से सब जगह एक ही सात सङ्ख्या न लेकर भिन्न-भिन्न लेनी चाहिये । प न्द्रिय तिर्यों के परिमाण को असङ्ख्यात सङ्ख्या इतनी छोटी लो अश्ती है कि जिससे अन्य सब पञ्चेन्द्रियों को मिलाने पर भी कुल पञ्चेन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रियों की अपेक्षा कम ही होते हैं । हरेन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्त्रण इसलिये कहे गये हैं कि साधारण वनस्प तिकाय के जीव अनन्त हैं, जो सभी एकेन्द्रिय है ।
सब प्रकार के स धनोकृम लोक के एक प्रतर के प्रदेशों के बराबर भी नहीं होते और केवल तेज. कायिक जीव असलयात लोकाकरण के प्रवेशों के बराबर होते हैं । इसी कारण बस सबसे बड़े और तेजः कायिक उनसे असङ्ख्यातग ुण माने जाते हैं | तेजः का विक, पृथिवीकायिक अलकायिक और वायुकायिक, ये सभी सामान्यरूप से असंख्यात लोकाकाश-प्रवेश-प्रमाण आगम में मागे गये हैं । तथापि इनके परिमाण सम्बन्धी असङ्खयरत सङ्ख्या भिन्न-भिन्न समझनी चाहिये। वायुकायिक जीवों से वनस्पतिकापिक इसलिये अनन्तगुण कहे गये हैं कि निगोद के जीव अनन्त लोकाकाश-प्रदेश प्रमाण हैं, जो वनस्पतिकायिक हैं ||३८||
१- अनुयोग द्वार. सूत्र, पु. २०३, २०४ ॥ २ -- अनुयोग द्वार, पृ० २.०