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वर्मग्रन्थ भाग चार
योग और वेदमागंणा का अल्प- बहत्व' |
मणवयणकाय जोगा, थोबा असंखगुण अनंतगुणा । पुरिसा थोवा इत्थी संखगुणानंतगुण कीवा ॥३६॥
मनोबचनकाययोगाः स्तोका असङ्खयगुणा अनन्तगुणाः ॥
पुरुषा: स्तोकाः स्त्रियः सङ्ख्यगुणा अनन्तगुणा कोल्वाः ॥१३६॥
अर्थ – मनोयोगवाले अन्य योगवालों से थोड़े हैं । यचनयोग वाले वचनयोग वालों से अनउनसे असंख्यातगुण और काययोगवाले
गण हैं ।
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पुरुष सबसे थोड़े हैं। स्त्रियां पुरुषों से सख्यातगुण और नपुंसक स्त्रियों से अनन्तगण हैं ||३६||
भावार्थ – मनोयोग वाले अन्य योगवालों से इसलिये थोड़े माने गये हैं कि मनोयोग संज्ञी जीवों में ही पाया जाता है। और संजी जोब अन्य सब जोवों से अल्प ही हैं । वचनयोग वाले मनोयोग वालों से असङ्खयगुण कहे गये हैं । इसका कारण यह है कि दोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असं पचेन्द्रिय और संजि - पञ्चेन्द्रिय, ये सभी बचनयोग वाले हैं । काययोग वाले वचनयोगियों से अनन्तगुण इस अभिप्राय से कहे गये हैं कि मनोयोगी तथा वचनघोगी के अतिरिक्त एकेद्रिय भो काययोग घले है ।
तिर्यञ्च स्त्रियां तिर्यख पुरुषों से तीन गुनी और तोन अधिक होती
१ – यह अल्प-बहुत्व, प्रज्ञापना के १३४वें पुष्ट में है । गोम्मटसार में पन्द्रह योगों को लेकर संख्या का विचार किया है। देखिये, जीव० गा० २५८ - २६६ ।
वेद-विधक अल्पबहुत्व का विचार भी उसमें कुछ भिन्न प्रकार से है । देखिये, जीव० गाथा० २७३ - २५०