Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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फर्मग्रन्थ माग चार
१८का कल्पना से असंख्यातवा भाग २ मान लिया जाया तो २ अधि-धेणियों के प्रदेशों के बराबर असुरकुमार हैं। प्रत्येक सूधिगियों ३२०.०४० प्रवेशा कल्पना से माने गये हैं। सबमसार २ सचिश्रेणियों के ६४००००७ प्रवेश हए । पही संख्या असुरकुमार आदि प्रत्येक भवनपति को समममी चाहिये, जो कि वस्तुतः असं
ज्यन्तरनिकाय के देव भी असंख्यात हैं। इनमें से किसी एक प्रकार के पन्तर वेदों की संख्या का मान इस प्रकार बतलाया गया है। सर यात योजन-प्रमाण अधिषि के जितने प्रवेश हैं, उनसे धनीकृत क के
म र समय का प्रतीतो भाग किया जाय, भाग मे पर जितने प्रदेशा लब्ध होते हैं, प्रत्येक प्रकार के पम्तर देव उतने होते हैं।
इसे समझने के लिये कल्पना कीजिये कि सड़ायात पोजनप्रमाण सधि-णि के १०००००० प्रवेा हैं। प्रत्येक सूषि-श्रेणि के ३२००००० प्रदेशों की कल्पित संस्था के अनुसार, समप्र प्रतर के १०२४०००००००००० प्रवेश हुए । अब इस संख्या को १०००००० भाग देने पर १०२४०००० लग्न होते हैं । यही एक यन्तर निकायकी खेर क्या हुई । यह सङ्ख्या पासुतः असंख्यात है।
ज्योतिषी देवों की मसप्रख्यात सतया इस प्रकार मानी गयी है । २५६ असल-प्रमाण-श्रेणी के जितने प्रवेश होते हैं, उनसे समय प्रतर के प्रदेशों को माग बेमा, भाग देने से वो लम्ब हों, उतने ज्योतिषी देव' हैं ।
___ _ १--त्र्यन्तर का प्रमाग गोम्मटसार में यही जान पड़ता है, देखिये, जीवकाण्ड की १५६वी गाथा ।
२-ज्योतिषी देवों की संख्या गोम्मटसार में भिन्न है । देखियो जीवकाण्ड की १५६वीं गाथा ।